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________________ भारतीय-संस्कृति में प्रशास्सा को कर्तव्य भमिका अखिल विश्व की मानव - जाति में शास्ता-शासक एवं नेता का स्थान सर्वोपरि रहा है। शास्ता अपने द्वारा शासित एवं अनु. जीवि जनता का संरक्षक एवं यथाप्रसंग योग्य पथ-प्रदर्शक होता है। शास्ता यदि योग्य है, सहृदय. उदारमना, स्वार्थ-मुक्त मेधावी एवं सहजभाव से प्रजावत्सल है, तो उसको प्रजा अर्थात् अनुजीवी जन सुखी, सद्गुणी, सदाचारी एव परस्पर एक - दूसरे के सहयोगी एवं स्नेही होते हैं । इसके विपरीत यदि शास्ता स्वार्थ - परायण, भोगासक्त, विवेक शून्य एथं समयोचित कर्तव्य की दृष्टि से शून्य होता है, तो उसके अनुचर वर्ग भी तदनुरूप ही हो जाते हैं, और वे परस्पर कलह - विग्रह आदि के व्यर्थ के संघर्षों में उलझकर अपना सर्वनाश कर डालते हैं । यह शास्ता अनेक रूपों में रूपायित है । यह परिवार का, घर का मुखिया होता है, समाज का पंच एवं चौधरी होता है, धर्मपरम्परा का गुरु होता है, एवं राष्ट्र का अभिभावक, प्राचीन शब्दों में राजा और आज के शब्दों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं मंत्री आदि नामों से अभिहित होता है। केवल कर्म-क्षेत्र का अन्तर होता है इनमें, किन्तु मूल में शाशकत्व की दृष्टि से एकरूपता ही होती है । प्रस्तुत में हम राष्ट्रनेता एवं राजा के शाशकत्व का प्रसंग उपस्थित कर रहे हैं। इसमें अन्य नेताओं का भी यथायोग्य स्वरूप समाधान पा लेता है-अपेक्षा है. सूक्ष्मदृष्टि से निरीक्षण, परीक्षण एवं आत्मालोचन की। जैन - परम्परा के पौराणिक - काल के आदि पुरुष भगवान् ऋषभदेव ने परिवार - नीति एवं समाज - नीति के साथ सर्वप्रथम चिन्तन के झरोखे से. १०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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