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________________ तथाकथित बाह्य शत्रुओं पर समयोचित एक-से-एक भयंकर संहारक शस्त्रों एवं प्रबल सैन्य शक्ति के द्वारा विजय पाई जा सकती है । अनेक सम्राटों का इतिहास साक्षी है, जिन्होंने महाभारत जैसे रक्त के प्रनदों को अपनी भौतिक शक्ति से बहाया और उन्मत्त होकर विजय के शंख बजाए हैं । किन्तु वे प्रबल शक्ति - सम्पन्न समझे जानेवाले योद्धा भी अन्दर के शत्रुओं से पदपद पर पराजित होते रहे हैं, ठुकराए गए हैं, कुचले गए हैं । वस्तुतः बाह्म विजय, विजय नहीं है । सही विजय है, अन्दर के विकारों को पराजित करने की । यही महाति महान् विजय है । उक्त विजय पाने वाले विश्व में विरले ही वीर, महावीर होते हैं । इसी सन्दर्भ में यथार्थ विकार विजेता महाश्रमण भगवान् महावीर ने कहा था - "अपने को जीतो अर्थात् अपने मन के विकारों को जीतो । उनको जीतना ही मुश्किल है । उक्त दुर्गम शत्रुओं को जिसने जीत लिया, वही सच्चा विजेता है, सर्व श्रेष्ठ विजेता है, जिसका बाहर में कोई शत्रु है ही नही ।" यथार्थ में वह परम सुखी एवं आनन्दमय है । आगम वाङ्मय उत्तराध्ययन की यह दिव्य ध्वनि है पथ पर "अप्पा चेव दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दमो | अप्पा दंतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥ " उत्तराध्ययन सूत्र में ही आध्यात्मिक दृष्टि से ही महान् विकार - विजेता नमि राजर्षि का वर्णन है । तपोधन राजर्षि ने स्वर्ग के इन्द्र से कहा था, साधना कदम रखते ही - " जो वीर युद्ध भूमि में हजारों हजार दुर्जय शत्रुओं को जीत सकता है, वह बाह्य विजय तो साधारण विजय है । यथार्थ में वह विजय है ही नहीं । वास्तव में परम विजय है - स्वयं को स्वयं के द्वारा जीत लेना, अपनी शुद्ध चेतना - शक्ति के द्वारा अशुद्ध एवं विकृत चेतना शक्ति पर विजय पा लेना । एक वार विजय प्राप्त कर छोड़ देना विजय नहीं है । यह तो युद्ध नीति की एक भयंकर भूल है और इस भूल का दुष्फल आत्मा ने अनेक वार भोगा है । वास्तविक विजय का अर्थ है - शत्रु का मूलोच्छेद कर देना । अतः यही यथार्थ एवं स्थायी विजय है विजय पर्व : Jain Education International - - - For Private & Personal Use Only एक और उस महान् १०१ www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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