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फोड़ देना है। कितना मूर्खतापूर्ण है प्यास बुझाने का प्रयास । यही स्थिति आजकल राष्ट्र में हो रही है ।
राष्ट्र की जनता को पूर्ण शक्ति के साथ अपने - अपने क्षेत्र में अधिकाधिक उत्पादन के हेतु जी-जान से जुट जाना चाहिए । बहुत पुराना नहीं, नया इतिहास ही आपके समक्ष साक्षी के रूप में उपस्थित है। द्वितीय विश्व युद्ध में पूरी तरह से ध्वस्त हुआ जापान जैसा छोटा - सा राष्ट्र अपने सामूहिक श्रम शक्ति के द्वारा आज कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया है। आज अमेरिका जैसे बड़े-बड़े पूंजीपति राष्ट्र भी जापान से शिक्षा ग्रहण करने के लिए हाथ पसार रहे हैं। और, एक ओर हम हैं कि आजाद हुए इतने लम्बे काल में भी भूख-भूख चिल्ला रहे हैं । दरिद्रता के नारे लगा रहे हैं। और जो कुछ उन्नति के रूप में अच्छा हुआ है, और अच्छा हो रहा है, उसे भी नकारते जा रहे हैं। स्वयं कुछ करते नहीं हैं और जो कुछ कर रहे हैं, उनकी टांग भी पीछे की ओर घसीट रहे हैं । अर्थात् "न कुछ हम करें और न कुछ तुम करो।" बस एकमात्र नारेबाजी करो और देश को समृद्ध बनाओ। पता नहीं ये लोग कैसे दिवास्वप्न देख रहे हैं, जो प्रायः निरर्थक ही होते हैं।
अपेक्षा है, अपने जीवन के कण-कण को श्रम की शक्ति से ज्योतिर्मय करने की। अपेक्षा है निर्माण से देश को आगे बढ़ाने की। अब तक के इतिहास में जो कुछ भी हुआ है, नित नए निर्माण से ही हुआ है । और, निर्माण होता है निष्ठा के साथ किए जाने वाले श्रम के द्वारा। इसलिए मानव जाति की अभीष्ट देवी 'श्री' के दर्शन होते हैं-श्रम के पथ की लम्बी यात्रा से।
अगस्त १९८८
AVA
सशक्त श्रम में श्री का निवास है।
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