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________________ कर सकता है, इसकी कल्पना नहीं कर सकते। उच्च पदस्थ देवों के साथ देवियों का सहस्राधिक संख्या में जमघट रहता है। देवों के काय-भोग सम्बन्धित कुछ वर्णन तो इतने अधिक अश्लीलता में वर्णित किए गए है, कि उन्हें अंकित करने में लेखनी लज्जाने लगती है । उक्त तथा अन्य तथाकथित वर्णन कितने विश्वास योग्य हैं, आँख बन्द कर मानने योग्य हैं, यह सब पाठकों की अपनीअपनी विश्वास वृत्ति पर छोड़ देता हूँ अभी। जो-कुछ लिखा मिलता है, उस पर से इतना तो फलित होता है कि देवलोक एक सुख भूमि है । और उस सुख को पाने के लिए मनुष्य को कदाचार से हट कर सदाचार के पथ पर चलना चाहिए। जब तक व्यक्ति असमाजिक जीवन के व्यामोह में दुराचार-अनाचार में फंसा रहेगा, तब तक उसे कथमपि स्वर्ग की उपलब्धि नहीं हो सकेगो। अतः हम यहाँ उस सुखोपलब्धि के हेतुओं वर्णन करना ही एक अच्छे समाज की रचना के लिए उपयुक्त समझते हैं। स्थानांग सूत्र के चतुर्थ स्थान के चतुर्थ उद्देश्य में देवत्व प्राप्ति के चार हेतु बताए है । तत्रस्थ मूल पाठ इस प्रकार "चउहिं ठाणेहिं जीवा देवाउयत्ताए कम्मं पगरेंति, तंजहा-१. सराग. संजमेणं २. संजमासंजमेणं ३. बालतवो कम्मेणं ४. अकामनिज्जराए।" महान आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ सत्र में भी देवगति के आयुष्य बंध के हेतुओं का कुछ थोड़े से हेर-फेर के साथ यही वर्णन है। आचार्यश्री का सूत्र है"सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि देवस्य ।" -तत्त्वार्थ सूत्र, ६, २०. मात्र संख्या क्रम का ही अन्तर है, और कुछ अन्तर नहीं है। दोनों का भावार्थ एक ही है। हमें भाव से मतलब है, संख्या क्रम के आगे - पीछे के हेर - फेर से नहीं। १. सरागसंयम : सर्व विरत संयमी मुनि जब तक राग-भाव से मुक्त नहीं होता है, तब तक वह मुक्ति प्राप्त नहीं करता, अपितु स्वर्ग गति ही प्राप्त करता है । सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए, तो संयम देव - गति का नहीं, मुक्ति का हेतु है । जो महानुभाव संयम को चिन्तन के झरोखे से : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001308
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1989
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size10 MB
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