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________________ जख्म थी। यह ग्रन्थ इस दिव्य जीवन-दर्शन का प्रभावी आविष्कार है। भगवान महावीर उभयमुखी जीवन-क्रान्ति के प्रतीक थे। वे मात्र वीतरागी ही नहीं थे तो वे तीर्थंकर भी थे। भीतर से अक्रिय अनासक्ति और बाहर सक्रिय क्रान्ति यह सब होते हुए भी वे मंगलकारी समन्वय वाद के प्रवर्तक थे। अपने इस जीवन दर्शन का बोध सुयोग्य रीति से मुनिश्री ने करवाया ही है, साथ ही उस भूमिका से स्वयं एकरूप हो कर आत्मोद्धार एवं जनोद्धार- दोनों के समन्वय का परिणामकारी समाज प्रबोधन भी किया है। " महावीर का उभयमुखी आदर्श अपनाने की आज महती आवश्यकता है। आज में कुछ समाज और राष्ट्र धर्म के नाम पर सर्वथा निष्क्रिय होते जा रहे हैं। दूसरी ओर विज्ञान तथा क्रान्ति के नाम पर अनर्गल अन्धा तूफान चल रहा है, जिसमें मानवता की जड़ें उखड़ी जा रही हैं। आवश्यकता है धर्म और विज्ञान के, अध्यात्म और क्रान्ति के यथोचित समन्वय की; महावीर के इस समन्वयवाद में ही जनमंगल के बीज छिपे हैं। समय की पुकार है, उन्हें जल्दी से जल्दी अंकुरित किया जाए।" मुनिश्री के इस कथम में उनका जीवन दर्शन, इस वाङ्भय का प्रयोजन एवं युगधर्म का प्रबोधन इस त्रिवेणी संगम का जनता को अनुभव होगा। इससे बढ़कर इस ग्रन्थ का श्रेष्ठत्व कौन बता सकेगा? मुनिश्री का यह उद्बोधक विचार धन पढ़ते समय स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, सन्त विनोबा इन विभूतियों की साहित्य कृतियों का स्मरण हो आता है। मुनिश्री के ये निबन्ध विषय की दृष्टि में चुनिन्दा, रसास्वाद की दृष्टि से रोचक, मार्गदर्शन की दृष्टि से प्रेरक, साधक की दृष्टि से जीवन मोचक तथा समाज सेवकों की दृष्टि से क्रान्तिकारक हैं। अनुभूति एवं सहानुभूति, भाग्य एवं वैराग्य, प्रपंच एवं परमार्थ, सद्गति एवं प्रगति, शान एवं ज्ञान तथा व्यक्ति एवं समष्टि के समन्वय पर जोर देने वाले भारतीय अवतारी पुरुषों, सन्त-मुनियों के दिव्य जीवन दर्शन की परम्परा इस ग्रन्थ के हर पृष्ठ में दिग्दर्शित होती है। साहित्यिक सुरस प्रासादिकता, विचारों की प्रगल्भता, द्रष्टा की प्रतिभा, आत्मरूप की तन्मयता, दीन-हीनों के प्रति वत्सलता, एक ही शब्द में कहना हो तो आध्यात्मिक मानवता की प्रचीति इस ग्रन्थ में सम्यक् रूप से होगी। व्रती होते हुए भी व्रतों का स्तोम नहीं है, मुनि होते हुए भी समाज विन्मुखता नहीं है, साम्प्रदायिक उपाध्याय होते हुए भी साम्प्रदायिकता नहीं है, मानवी जीवनमूल्यों के सनातन धर्म का आचरण करते हुए वर्तमान युगधर्म की विस्मृति नहीं है, धर्म के तत्त्वों का आग्रह रखते हुए भी अन्ध रूढियों का पूर्वग्रह नहीं है, साधु परम्परा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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