________________
सामान्य हो गई है । उससे भी आगे षड्-जीवनिकाय की हिंसा से चलने वाले मुद्रण यन्त्रों में त्रिकरण-त्रियोग से त्यागी श्रमणों के प्रवचन एवं ग्रन्थ मुद्रित होते हैं, उनका विक्रय होता है । अन्य प्रकाशकों द्वारा मुद्रित ग्रन्य क्रय करके मंगाये जाते हैं । श्रमण-श्रमणियाँ स्वयं तो कार आदि यान-वाहन में नहीं बैठते, परन्तु उनके द्वारा दिए गए संदेश को यथास्थान पहुंचाने एवं उसका उत्तर लाने के लिए संदेश-वाहक, पत्र, पार्सल, पुस्तकें, सामान आदि कार, ट्रेन, बस, ट्रक, वायुयान आदि से इधर-उधर आते-जाते हैं । क्या त्रिकरण-त्रियोग के त्यागियों की यह यान-यात्रा नहीं है ? क्या वे स्वयं न जाकर इस तरह सामान भेज सकते हैं, मंगवा सकते हैं ? आज भी छोटे-मोटे नदी-नालों में घुटने तक भरे पानी को पैरों से चल कर पार करते हैं और अधिक पानी होने पर नौका-यान से भी नदी पार करते हैं क्या इस क्रिया में अप्कायिक एवं अन्य स्थावर तथा पानी के आश्रित रहे हुए द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय त्रस प्राणियों तक की जो हिंसा होती है, वह हिंसा नहीं है ? वहाँ त्रिकरण-त्रियोग सुरक्षित रहता है क्या ?
क्या त्रिकरण-त्रियोग से त्यागी श्रमण चातुर्मास-स्वीकृति रूप पूर्व उद्घोषणा कर के चातुर्मास कर सकता है, दीक्षाउत्सव के मेलों में सम्मलित हो सकता है, गुरु की, एवं अपनी जयन्ती, अपने अभिनन्दन समारोह, अमृत-महोत्सव एवं गुरु आदि की पुण्य-तिथि के आडम्बर पूर्ण उत्सवों में भाग ले सकता है, पत्रकार सम्मेलन बुला सकता है, रेडियो, वीडियो, एवं टेलीविजन पर भाषण, फोटो-चित्र आदि प्रसारित-प्रदर्शित करा सकता है ? यश-प्रतिष्ठा बटोरने एवं अपने त्याग के दिखावे का प्रदर्शन करने हेतु किए जाने वाले ऐसे और भी अनेक कार्य हैं, जिनमें तथाकथित उत्कृष्ट चारित्री कहलाने वाले श्रमणों का त्रिकरण-त्रियोग का त्याग कितना सुरक्षित रहता है?
- इसका अर्थ तो यह हुआ कि वे जो-कुछ करें, वह सब हिंसा आदि दोषों से रहित है । परन्तु, अपने से भिन्न परम्परा एवं सम्प्रदाय का श्रमण देश-काल की परिस्थिति को देखकर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावानुसार धर्म-प्रचार के लिए कुछ करता है, तो वह त्यागी नहीं है । लगता है, त्याग का ठेका इन तथाकथित धर्म-गुरुओं ने ही ले रखा है ।
त्रिकरण-त्रियोग के त्याग का प्रश्न वर्तमान में ही उठा है, ऐसा नहीं है । यह प्रश्न युग-युगान्तर से, शताब्दियों-सहस्राब्दियों से चला आ रहा है ।
(३३०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org