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संयम यात्रा अकषाय भाव में
जैन-धर्म निवृत्तिप्रधान है । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि जैन-साधना में प्रवृत्ति को कोई स्थान नहीं है, प्रवृत्ति का पूर्णत: निषेध है । निवृत्तिप्रधान का तात्पर्य यह है कि जैन-धर्म की अध्यात्म-साधना में निवृत्ति मुख्य है, प्रवृत्ति गौण है । क्योंकि साधना का लक्ष्य त्रियोग और उसके आधार कर्म तथा कर्म के मूल हेतु विभाव से पूर्णत: निवृत्त होकर अपने शुद्ध स्वभाव एवं स्वरूप को अनावृत्त करना है । अस्तु, निवृत्ति अध्यात्म-साधना का मूल लक्ष्य है।
इसलिए अध्यात्म-साधना में गुप्ति और समिति का महत्त्व पूर्ण स्थान है | मन, वचन और काय-योग का सम्यक् रूप से गोपन करना गुप्ति है और जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विवेक - पूर्वक योगों को प्रवृत्त करना समिति है । आवश्यक कार्यों के साथ धर्म-प्रचार हेतु प्रवृत्ति करना भी समिति में समाहित है । गुप्ति निवृत्ति की परिसूचक है और समिति प्रवृत्ति की । निवृत्ति और प्रवृत्ति का यह समन्वित रूप ही अध्यात्मसाधना है। इसमें न तो एकान्त रूप से निवृत्ति का आग्रह है और न एकान्तत: प्रवृत्ति का । क्योंकि यथार्थ में जीवन की गति भी एकान्त नहीं है । न तो एकान्त रूप से निवृत्ति परक रहने का आग्रह रखने वाला समाधिपूर्वक जीवन-यात्रा कर सकता और न निरन्तर प्रवृत्ति में संलग्न रहने का आग्रह रखने वाला भी । जीवन समन्वय पर ही स्थित है । इसलिए निवृत्ति-प्रवृत्ति का सम्यक् समन्वय करके चलना ही सम्यक्-साधना है।
अध्यात्म-साधना के पथ पर चलने को तत्पर जैन श्रमण, इस निवृत्ति-प्रवृत्ति के समन्वित पथ पर चलने की प्रतिज्ञा करता है | उसकी साधना का उद्देश्य न तो सिर्फ क्रियाओं से निवृत्ति है और न सिर्फ क्रियाओं में प्रवृत्ति । उसका लक्ष्य है-जिस वैभाविक परिणति ( राग-द्वेष, कषाय-नोकषाय) से कर्मों का बन्ध होता है, उससे मुक्त होना-“कषायमुक्ति: किल मुक्तिरेव ।"
१. रागो व दोसो वि य कम्म बीयं । - उत्तराध्ययन ३२,७
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