________________
धर्म का दंभ से, दो जिह्वाओं से कोई संबंध नहीं है । जहाँ दंभ है, वहाँ अधर्म है, पाप है । धर्म है, सरलता में, मन की निर्मलता में । भगवान् महावीर निर्वाण के क्षणों में भी अपनी निर्दम्भ दिव्य ध्वनि ध्वनित कर गए हैं कि 'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई धर्म शुद्ध हृदय में रहता है ।
-
कब होगा, उपर्युक्त शब्द पाठ का अन्तर्हृदय में भाव पाठ ? यह तब होगा, जब हम कूपमण्डूकता की क्षुद्र मानसिकता से बाहर निकलेंगे । और, इस मानसिकता से बाहर तब निकलेंगे, जब सत्य को पोथी पतरों के अक्षरों से बाहर अनन्त असीम रूप में देखेंगे, और सत्य का यह अनन्तरूप में दर्शन अनेकान्त एवं स्वाद्वाद के विना न आज संभव है और न कल । अनेकान्त ही सत्य के विराट रूप का दर्शन करा सकता है, झगड़ालू क्षुद्र मनोवृत्ति की दूषित मान्यताओं के कदाग्रह से मुक्त करा सकता है । सब ओर कदम कदम पर सत्य की मधु- धाराएँ प्रवाहित हैं, यदि कोई पान करना चाहे तो, परन्तु अनेकान्त दृष्टि के बिना वे दीखें, तो कैसे दीखें ? दुर्भाग्य है आज के मानव का कि वह देखकर भी कुछ नहीं देख पा रहा है सुनकर भी कुछ सुन नहीं पा रहा है, छूकर भी कुछ छू नहीं पा रहा है, और चल कर भी कुछ चल नहीं पा रहा है । कूप - मण्डूक जो बन गया है । मान्यताओं के गन्दे सड़ते कूप से बाहर निकले बिना सही रूप में न कुछ देखा जा सकता है, न कुछ सुना जा सकता है । सत्य को छूने और उसकी राह पर चलने की तो बात ही कहाँ है ?
अपेक्षा है हमारी शुद्ध मानसिकता को व्यापकता में बदलने के लिए इतिहास के क्षुद्र अध्ययन की । इतिहास ही हमें बताता है कि चिर अतीत में से आज तक आते-आते मानव जाति, सामाजिक एवं धार्मिक आदि क्षेत्रों में कैसेकैसे परिवर्तित होती आई है, देश और काल का कब कहाँ कैसा प्रभाव पड़ा है और इसके फल स्वरूप मानव कितना कुछ पुराना छोड़ता और कितना कुछ नया-नया अपनाता आया है । मानव का मस्तिष्क और तदनुरूप कर्म कभी एकान्त रूप से स्थिर नहीं रहा है । अब भी भविष्य की यात्रा के लिए उसे यथाप्रसंग बदलना ही होगा । पहले रखे कदम को छोड़े विना, अर्थात् वहाँ से उठाए विना अगला कदम कैसे रखा जाएगा? और वहीं रखा जाएगा, तो गति कैसे होगी? और गति न होगी, तो मंजिल तक कैसे पहुँचा जाएगा ?
Jain Education International
इतिहास के साथ ही दूसरी अपेक्षा है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण की । वैज्ञानिक चिन्तन व अध्ययन के विना अन्ध विश्वासों का चिरागत सघन अन्धेरा
-
-
(३२३)
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org