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________________ धर्म के नाम पर रक्त बहने लगता है । मुसलमान होते हुए भी सिया - सुन्नियों के बीच, हिन्दू होते हुए भी हरिजन - सवर्णों के बीच, सिक्ख होते हुए भी निरंकारियों-अकालियों के बीच, जैन होते हुए भी दिगम्बर - श्वेताम्बरों के बीच, आये दिन जो झगड़े होते हैं, वह प्रमाण है, संप्रदायों की झगड़ालू मनोवृत्ति का । झगड़ालू मनोवृत्ति दूसरों से ही नहीं, जरा - सा मतभेद होते ही अपनों से भी टकराने लगती है, यहाँ तक कि एक-दूसरे का खून बहाने तक को भी तत्पर हो जाती है । तत्पर क्या, खून बहाने ही लगती है, जैसा कि हम इन दिनों प्रत्यक्ष में देख रहे हैं, सुन रहे हैं और अखबारों में पढ़ रहे हैं । मानव जाति का कल्याण धर्म निरपेक्ष होने में नहीं है, अपितु धर्म के नाम से प्रचारित, किन्तु धर्म से शून्य इन रँगे सियार संप्रदायों से निरपेक्ष होने में है । जल से शून्य अन्ध गर्त का रूप लिए कूप को पाट ही देना चाहिए । जीवन - प्राण से शून्य मृत हुए शरीर को आग या मिट्टी में दफना ही देना चाहिए । यही व्यवहार धर्म - भावना से रिक्त हुए संप्रदायों के प्रति भी अपेक्षित है । मानव जाति का अभ्युदय एवं निःश्रेयस साम्प्रदायिक धर्म से नहीं, अपितु आध्यात्मिक धर्म से है । अमुक अंश में आध्यात्मिक से अनुप्राणित संप्रदाय से भी हो सकता है, परन्तु इसमें बहुत सावधानी की अपेक्षा है । ध्यान रखना है, संप्रदाय में किसी अपेक्षा से धर्म हो सकता है, परन्तु मूलत: संप्रदाय धर्म नहीं है, और धर्म संप्रदाय नहीं है । धर्म ज्योति है, ज्योतिशिखा है । लौ तो लौ है - उसमें कहीं भेद नहीं है । न देश का भेद है और न काल का । समग्र विश्व में सदाकाल लौ लौ है, ज्योति, ज्योति है, अन्धकार को दूर करती है । दीवट-दीयाधार अनेक रूपों में अनेक हो सकते हैं, अत: दीवट पर अधिक ध्यान न दीजिए | ध्यान दीजिए पूर्णतया ज्योति पर, यदि अन्धकार दूर करना है तो । धर्म ज्योति है, सम्प्रदाय दीवट है । ज्योतिहीन दीवट स्वयं अन्धकार में डूबा रहता है, वह प्रकाश कैसे करेगा ? खेद है, बुझी हुई मशालें लेकर लोग अन्धकार में उजेला होने का, पथ प्रदर्शन करने का नारा लगाते हैं, कितना विचित्र भ्रम पाले हुए हैं। स्पष्ट है, आध्यात्मिक धर्म की, तथा आध्यात्मिक धर्म पर आधारित कर्म की ही आज के समाज को आवश्यकता है । आज क्या, सदा काल ही आवश्यकता है । आध्यात्मिक धर्म ही मानव के अन्तरतम में उद्भूत होकर (३१८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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