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धर्म और पंथ की विभेदक रेखा
धर्म क्या है ? यह जीवन का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, जो प्राचीन युग में भी था और आज भी ज्यों-का-त्यों खड़ा है | इतिहास एवं धर्म-ग्रन्थ साक्षी हैं कि प्राचीन युग के मनीषियों ने, ऋषि-मुनियों ने, धर्मगुरुओं ने इस प्रश्न का समाधान दिया और आज भी अनेक धर्मगुरु भिन्न-भिन्न रूप से समाधान देने का प्रयत्न कर रहे हैं । फिर भी यह प्रश्न बार-बार पूछा जा रहा है ।
कारण यह है कि सत्य को यथार्थ रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। इसलिए सही समाधान नहीं हो रहा है और जन-जन के मन-मस्तिष्क में प्रश्न चक्कर काट रहा है । यह तो आप सब जानते हैं कि संसार में बाहर के नियम न तो कभी एक से रहे, न एक समान है और न एक जैसे रह ही सकते हैं । खाने-पीने, रहने आदि के नियम, उद्योग-धन्धों के नियम, विवाह संस्कार आदि के नियम, धार्मिक उपासनाओं के नियम एवं क्रिया काण्ड सब के सब एक से नहीं हैं । अलग अलग देशों में और अलग-अलग जातियों में अलग-अलग नियम हैं और देश काल के अनुरूप उनमें परिवर्तन भी होता रहता है । ऐसी स्थिति में जब हम इन नियमों को जीवन व्यवहार के बाहय विधि-विधानों को धर्म का रूप दे देते हैं, धर्म का चोगा पहना देते हैं, तब धर्म का प्रश्न बड़ा पेचीदा बन जाता है । साधारण जनता शीघ्र जानना चाहती है कि हम क्रिया-काण्ड के किस स्वरूप को ग्रहण करें, कौन सी पद्धति अपनाएँ ? कौन-सी उपासना पद्धति धर्म है?
सत्य यह है, धर्म आत्मा का स्वभाव है | वह अन्तर में है, बाहर में नहीं । बाहर के विधि-निषेध, जिस परम्परा में देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार जिस रूप में हैं, वे सब जीवन व्यवहार के लिए हैं | उनमें धर्म नहीं है। धर्म का वास्तविक रूप कुछ और है। और हमने समझ कुछ और लिया है । धर्म को जिस रूप में ग्रहण करना चाहिए, हमने उसे तद्रूप में ग्रहण ही नहीं
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