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दृष्टि वस्तुतत्त्व के सर्वांगीण स्वरूप की दृष्टि है । अत: वह वस्तुतत्त्व को खण्ड-खण्ड रूप आग्रहों में नहीं देखता, अपितु समन्वय रूप अखण्ड अनाग्रह के रूप में देखता है। यह मात्र दो-चार उदाहरण ही नहीं हैं, अपितु इस तरह के संख्यातीत उदाहरण जनजीवन में मिल सकते हैं ।
__एक व्यक्ति को दूसरा व्यक्ति गधा कहता है । जब वह आदमी है, तो गधा कैसे ? बात की यथार्थता को समझने के लिए जरा बात कहने वाले की दृष्टि पर ध्यान दीजिए । जिसे गधा कहा गया है, वह भले ही देह दृष्टि से आदमी है, किन्तु अपनी मूर्खता एवं बुद्धिहीनता के कारण वह विचार दृष्टि से गधा है ।
एक व्यक्ति को शेर कहा जा रहा है | आदमी को शेर कहना गलत है न? गलत नहीं है । वीरता के गुण को लक्ष्य में रख कर उसे शेर कहा जाता है । इसी प्रकार किसी को अन्धा, और किसी को बहरा कहा जाता है, जब कि वह इन्द्रिय की दृष्टि से न अन्धा है, न बहरा | बस, यह है कि जो अच्छी तरह देख-भाल कर काम नहीं करता है, वह आँखों के होते हुए भी अंधा है । और, दूसरा व्यक्ति किसी की बात को ध्यान से नहीं सुनता है, इसलिए श्रवण क्रिया समर्थ कानों के होते हुए भी वह बधिर है | यह सब दृष्टियों का खेल है | लक्षणा-शक्ति का अर्थ भेद है । अनेकान्त-दर्शन इन्हीं दृष्टि-पथों में देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप समन्वय साधता हुआ यात्रा करता है ।
देश-भेद और काल-भेद का एक उदाहरण है, महावीर के ही शब्दों में । उन्होंने एक समय कहा था कि भारत में वर्तमान काल की दृष्टि से दिन है, तो इसी समय विदेहादि अन्य क्षेत्रों में रात भी है । दिन और रात एक काल में एक साथ है, विचित्रसा लगता है।
मुझे भी एक बार वाराणसी के एक ब्राह्मण विद्वान ने अनेकान्त-दर्शन पर कटाक्ष करते हुए पूछा था- “ अब अनेकान्त-दृष्टि से दिन है या रात है ! " समय प्रायः दिन के मध्याह्न का था |
मैंने तत्काल उत्तर दिया“ दिन भी है और रात भी है ।"
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