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________________ अनेक रूप में बिखरा पड़ा है। और, आप जानते हैं, यह बिखरा हुआ रूप कार्यकारी कैसे हो सकता है ? बिखराव में न तो कोई अर्थवत्ता रह सकती है और न गुणवत्ता । विशाल वह वृक्ष की शताधिक शाखाएँ टूट-टूट कर इधर-उधर बिखर जाए, मूल और स्कन्ध भी विच्छिन्न हो जाए, तो बताइए वह वृक्ष, वृक्ष के रूप में अपनी क्या गुणवत्ता की अभिव्यक्ति कर सकता है? वह विशाल वृक्ष एक मात्र निकृष्ट इन्धन का रूप लेकर रह जाता है। मानव का शरीर अखण्ड रूप में ही काम कर सकता है। यदि मस्तक, नेत्र आदि इन्द्रियाँ, हाथ, पैर, उदर और अन्तत: प्राणशक्ति सब-के-सब इधर-उधर बिखर जाएँ, तो फिर वह मनुष्य क्या मनुष्य रह जाता है? क्या वह कुछ कर सकता है? ऐसे ही एकान्तवाद के रूप में सत्य भी जब खण्डित होने लगता है, तो उसका भी यही हाल होने लगता है। अनेकान्त मत-मतान्तरों के वादों से मुक्त होकर खण्डित सत्यों को जोड़ने का काम करता है। फलत: सत्य को अखण्ड बनाता है। और, अखण्ड सत्य में से ही अहिंसा, दया, करुणा, प्रेम, पारस्परिक विश्वास, एवं सद्भावना के जीवनोपयोगी निर्मल निर्झर प्रवाहित होते हैं। महाश्रमण भगवान महावीर की महिमा का गान अहिंसा के रूप में होता है, किन्तु मैं कहता हूँ- अहिंसा के पूर्व अनेकान्त अपेक्षित है। यदि अनेकान्त के अभाव में एकान्त के द्वन्द्व चलते रहे, तो मानव जंगली हिंस्र पशुओं की तरह ही मानवता का खून बहाता रहेगा। उसके जीवन में मानवता का कुछ भी अंश शेष नहीं रहेगा! जब तक विचारों में समत्व नहीं है, समन्वय नहीं है, अपितु वैषम्य है, तब तक कितने ही हजार प्रयत्न कीजिए, मानव-जाति में घृणा, विद्वेष, वैर एवं विनाश का दावानल जलता ही रहेगा। यदि महावीर के मूलस्पर्शी दर्शन को देखा जाए, तो यथार्थ अहिंसा अनेकान्त ही है। अत: सर्व-प्रथम अनेकान्त की उपासना आवश्यक है, अनिवार्य है। आज से ही नहीं, काफी पुराने पूर्व काल से अनेक विचारक यह कहते आ रहे हैं कि अनेकान्त परस्पर विरोधी विचारधाराओं को समन्वित करने का, जो एक विचार है, वह मात्र एक दिवास्वप्न है। विभिन्न विरोधों में, विरोधाभासों में, समन्वय कैसे हो सकता है? यह बात चिन्तन की गहराई में न जाकर, केवल सतही तौर पर अनेकान्त-दर्शन की समीक्षा करने के कारण है। सैद्धान्तिक गहराई में न जा कर यदि हम लोक-व्यवहार को भी अच्छी तरह देख लें, तो ऊपर से विरोधाभास-रूप वचनों एवं कार्यों में भी समन्वय के दर्शन हो सकते हैं। (५०९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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