SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संस्कृति की शिष्टाचार संबंधी स्वर्णिम रेखाएँ संस्कृति एवं सभ्यता, मानव-जीवन की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं । मानव की उत्तमता एवं अनुत्तमता इन्हीं की तरतमता पर निर्भर है । कौन मनुष्य कैसा है-समादरणीय है अथवा असमादरणीय, इसका पता इसी पर से लग सकता है, कि वह किस संस्कृति एवं सभ्यता में पला है । संस्कृति तथा सभ्यता, दो भिन्न शब्द हैं । शब्दश: अर्थ होता है क्रमश: इनका-संस्कार और शिष्ट जन-सभा में उपनिविष्ट होने की योग्यता । मनीषी विद्वानों ने ऐसे ही कुछ शब्दों के आधार पर दोनों की अनेक रूपों में विभाजित रेखाएँ निर्मित की हैं | किन्तु फिर भी स्पष्टत: और सर्वथा विभाजक रेखा नहीं स्थापित की जा सकी है । इधर-उधर घूम-घाम कर समाजशास्त्री तथा धर्म-शास्त्री जैसे विचारक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि संस्कृति का सम्बन्ध अन्तर्-जीवन के संस्कारों से है और सभ्यता का सम्बन्ध बाह्याचार आदि से । इसी आधार पर किसी मनुष्य को सुसंस्कृत तथा असंस्कृत, सभ्य तथा असभ्य आदि शब्दों से संबोधित किया जाता है । मैं यहाँ इस लम्बे शब्द प्रपंच से, अनसुलझे प्रसंग से बच कर मूलतः दोनों को एक ही रूप में समाहित करके भारतीय जन-जीवन के आचार-व्यवहार की चर्चा कर लेना चाहता हूँ । भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता अपनी एक विशिष्ट महत्ता रखती है । उसका मूल विनय एवं शिष्टाचार में है । अपने से महत्तर अथवा बराबर के लोगों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, यह प्राचीन ग्रन्थों में अत्यधिक चर्चित विषय समुपलब्ध है । श्रमण भगवान महावीर ने तो विनय को विशिष्ट अन्तरंग तप में समाविष्ट किया है, जो मानव आत्मा को वर्तमान में कर्मबन्ध से बचाए रखने को कारण संवर है, साथ ही पूर्व-बद्ध कर्मों का अमुक मात्रा में निर्जरण करते रहने से, निर्जरा भी है | संवर और निर्जरा, दोनों ही मोक्ष के अंग हैं । इस दृष्टि से विनम्र अपने से गुण महत्तरों के प्रति समादर का भाव रखने से (४८६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy