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________________ यदि मनुष्य के मन में करुणा है, दया है, तो धर्म है, अन्यथा क्रिया-काण्ड आदि के रूप में यत्र-तत्र एवं यदवा - तदवा कुछ भी किया जाता हो, तो वह धर्म नहीं है । अत: धर्म, पंथ, जाति, कुल और भौगोलिक भेदों की खण्ड रेखाओं से ऊपर उठ कर हम सबको अखण्ड रूप से विपदग्रस्त प्रजाका मंगल-कल्याण करना है । यह हमारा धर्म है, कर्तव्य है, कर्म है और है हमारी मानवता का आदर्श । इसके अभाव में मनुष्यों और पशुओं में क्या अन्तर रह जाता है ? वर्तमान जन-जीवन की स्थिति का तकाजा है कि हमारे धार्मिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्सवों पर जो अनर्गल, अर्थहीन धन व्यय हो रहा है, उसका कण-कण बचाकर सूखा और बाढ़ दोनों ही दु:स्थितियों के दुष्प्रभाव से जन-जीवन को मुक्त करने के लिए अपने प्राप्त साधनों का उपयोग किया जाए । अनेक सहस्र लोगों के रोते हुए, कुछ लोगों का हँसना, नाचना, कूदना एवं किन्हीं धार्मिक या सामाजिक उत्सवों के रूप में खुल कर मिष्टान उडाना, पाप नहीं तो और क्या है? यदि समय पर स्थिति को नहीं संभाला गया, तो शासन - तन्त्र के द्वारा कितना ही बीच बचाव किया जाए, अभावग्रस्त प्रजा में लूट-मार, हत्या आदि के दुष्चक्र का प्रसार हुए बिना न रह सकेगा - "बुभुक्षितः किं न करोति पापम्” हमारी चिरन्तन उक्ति न कभी असत्य हुई है, और न कभी असत्य होगी । श्रमण भगवान महावीर ने इसी सम्बन्ध में कहा था " आहारट्ठिया पाण्णा" अर्थात् प्राणी के प्राण आहार पर स्थित है । और आप जानते हैं कि प्राणों की रक्षा के लिए प्राणी कुछ भी कर्म - विकर्म-दुष्कर्म कर सकता है । यही हेतु है कि हमारे पूर्वज करुणामूर्ति ऋषियों, मुनियों ने दया-धर्म का उपदेश दिया है- "दया धर्म का मूल है ।" यह सन्त-वाणी शत-प्रतिशत सत्य पर आधारित है । दया, मानवता का अन्त: प्राण है । उसकी यह दिव्य ध्वनि है कि मानव तुम्हें जो कुछ प्राप्त है, उसका इधर-उधर अपेक्षित दिशा में प्रथम उपयोग करके तदनन्तर स्वयं उपभोग करो। यजुर्वेद का मन्त्र है - " त्येन त्यक्तेन भुञ्जीथा” अर्थात् त्याग - पूर्वक उपभोग करना चाहिए । तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर ने कहा था- “ असंविभागी न हु तस्स मोक्खो" अर्थात् जो अपने आस-पास के साथियों में अपने प्राप्त साधनों का समविभाग अर्थात् उचित वितरण नहीं करता है, वह भव-बन्धन से कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान महावीर ने तो इससे आगे बढ़कर यहाँ तक कहा है - मेरी उपासना से बढ़ कर भी सर्वाधिक मंगलमय (४७०) Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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