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पुत्र, दूसरे प्राणी भी सुख के इच्छुक हैं, दु:ख के विरुद्ध हैं । सब सुखी होना चाहते हैं । कोई दु:खी होना नहीं चाहता । अत: तू मत किसी को मारे, मत किसी को फटकारे, मत किसी को डाँटे और मत किसी पर भौंह चढ़ाए ।"
काश! करुणामूर्ति उस माता का यह करुणोपदेश धरती के हर मानव-पुत्र को छू जाए, उसकी गहराई में उतर जाए, तो संसार में सुख-शान्ति का, आनन्द-मंगल का अखण्ड राज्य इसी करुणा-वृत्ति से स्थापित हो सकता है। आज के मानव की तन-शक्ति, धन-शक्ति और बौद्धिक-शक्ति तो काफी बढ़ी है, इन्होंने तो काफी विस्तार पाया है । परन्तु , दुर्भाग्य से उसके हृदय में से करुणा का निर्झर सूख गया है और उसके परिणाम स्वरूप वहाँ एक भयंकर तप्त मरुस्थल हो गया है, जहाँ पारस्परिक घृणा, वैर-विद्वेष की धूल भरी जलती हुई तूफानी आँधियाँ चल रही हैं । सब ओर हत्या, लूटमार, बलात्कार, भ्रष्टाचार का एक ऐसा रावणराज्य स्थापित हो गया है, जिससे मानव-जाति के सर्वनाश का खतरा उपस्थित हो गया है ।
अत: अपेक्षा है, आज एकमात्र अनुकम्पा की, करुणा की । अपने समान ही सभी आत्माओं और उनके सुख-दु:खों को समझने की । सब धर्मों का मूल करुणा है, उसी के आधार पर सभी सत्य, संयम, शील आदि धर्म अवस्थित हैं । यदि मानव-हृदय में अनुकम्पा नहीं है, शरीर से परे अनुभूतिशील
चैतन्य-तत्त्व को देखने की अन्तर्दृष्टि नहीं है, तो फिर वह कुछ भी नहीं है । विश्व के कोने-कोने में सब ओर सर्वत्र ‘आत्मवत्सर्वभूतेषु' का नाद अनुगुंजित होना चाहिए । “अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् " अहिंसा विश्व के प्राणियों के लिए आराध्य परब्रह्म है और उक्त अहिंसा का प्रादुर्भाव होता है अनुकम्पा में से, करुणा में से । अनुकम्पा के अभाव में अहिंसा की कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती । संवेदनशील अन्तर्हृदय से उद्भूत होनेवाली अनुकम्पा में ही शुद्ध अहिंसा प्रस्फुटित होती है । यदि यह न हो, तो फिर अहिंसा एक दिखावा हो जाता है, अत: वह दर्शन नहीं, प्रदर्शन है | नट विद्या है, साधना नहीं ।
भगवती अनुकम्पे ! मानव-हृदय में उतरो, उसे संवेदनशील बनाओ, ताकि वह सही अर्थ में मानव बने, जन-मंगल का पुरस्कर्ता बने ।
नवम्बर १९८३
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