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________________ मुंडवाते रहे, संयम का पालन करते रहे, व्रत और नियमों का पालन करते रहे, किंतु उसका परिणाम तेली के बैल के समान शून्यवत ही रहा । आखिर ऐसा क्यों होता है? इस प्रकार का प्रश्न उठना स्वाभाविक है । साधना हो और फिर भी प्रगति न हो, यह तो एक आश्चर्य ही होगा । थकावट हो, थक कर अंग चूर-चूर हो जाए, किन्तु फिर भी वहीं के वहीं, यह साधक जीवन की अच्छी स्थिति नहीं कही जा सकती । प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है? इसलिए होता है, कि मन की गाँठें नहीं खुलने पातीं । जब तक मन की गाँठ नहीं खुलती है, तब तक साधना का कुछ भी लाभ नहीं मिलने पाता है । मन पर वासना की परत-पर-परत जमी है, उन्हें दूर करना आवश्यक है । एक आचार्य ने बड़ी सुन्दर बात कही है-- राग-द्वेषो यदि स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् । राग-द्वेषो च न स्यातां, तपसा किं प्रयोजनम् । यदि राग और द्वेष हैं, तो तपस्या करने से कुछ भी लाभ नहीं । यदि राग-द्वेष नहीं रहे हैं, तब भी तपस्या करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि तप इसलिए किया जाता है, कि उससे राग-द्वेष क्षीण हो जाएँ । यदि तपस्या की साधना करने पर भी राग-द्वेष क्षीण नहीं होते हैं, तो फिर तपस्या की साधना फलवती नहीं हो सकती । इसके विपरीत यदि साधक का हृदय इतना निर्मल हो चुका है कि उसमें न राग रहा है और न द्वेष रहा है, तो उसके लिए भी तपस्या की साधना का कोई विशेष प्रयोजन शेष नहीं रहता । उन्हीं साधकों का जीवन तेली के बैल के समान रहता है, जिन्होंने अपनी मन की गाँठों की नहीं खोला है, राग और द्वेष की ग्रन्थि को नहीं तोड़ा है, वे कितनी भी तपस्या करें और कितने भी नियमों का पालन करें, किन्तु उनके जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आ सकता | जिसके मन में राग-द्वेष की गाँठ है, वह भले ही गृहस्थ हो अथवा साधू हो, वह अपनी साधना में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । पचास वर्ष के बाद भी वह वहीं-का वहीं खड़ा मिलता है, जहाँ से उसने अपनी यात्रा प्रारम्भ की थी । वे यात्रा नहीं करते, बल्कि तेली के बैल के समान घूमते हैं, चक्कर काटते हैं और इधर-से-उधर भटकते हैं | ___ मोह और क्षोभ जब तक दूर नहीं होते हैं, तब तक साधना कैसे सफल हो सकती है? मोह-मदिरा का पान करके यह आत्मा अपने स्वरूप को (४४०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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