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________________ महाश्रमण भगवान महावीर का यह उद्घोष रहा है कि विश्व की समस्त आत्माएँ स्वरूप की दृष्टि से एक जैसी हैं—- – " एगे आया" सबमें परमात्म-ज्योति निहित है । इसलिए विश्व में सब प्राणी मेरे अपने हैं । न कोई पराया है, न कोई शत्रु है । "मित्ती मे सव्व भूएसु” - समस्त प्राणी जगत् मेरा मित्र है । अपेक्षा है, कर्म क्षेत्र में खडे होने की । आप भव्य आत्मा हैं । श्रमण भगवान महावीर आपको भव्य कहते हैं । जो उस दिव्य वाणी को सुनकर ग्रहण करने की, उसे मूर्त रूप देने की भूमिका रखते हैं, वे भव्य हैं । आप जो अभी यहाँ उपस्थित हैं और अन्य भी अनेक भाई-बहन, जो अभी यहाँ उपस्थित नहीं भी हैं, जिन्होंने इस शून्य - वीरान जंगल में काम किया है और आज भी सत्कर्म में संलग्न हैं । महाप्रभु की यह समवसरण भूमि दिव्य देशनाभूमि, जो एक तरह से शून्य जंगल के रूप में परिवर्तित हो गई थी, अन्धकाराच्छन्न हो गई थी, उस अंधकार में आप सत्कर्म के दीप जला रहे हैं । जहाँ हजारों-हजार बल्ब जल रहे हैं, वहाँ दीपक जलाएँ तो क्या मूल्य है उसका ? दीपक का महत्त्व है अंधकार में। जहाँ सघन अन्धेरा है, वहाँ दीप जलाएँ, तब पता चलता है ज्योति का कितना मूल्य है । अत: अपेक्षा है, हम अपनी क्षेत्रीय प्रान्तीय सीमाओं के घरौंदों से, जातीय एवं साम्प्रदायिक परम्पराओं के घेरों से बाहर आएँ और जो महावीर की दिव्य - देशनाओं को भूल गए हैं, उन्हें दिव्य देशना सुनाएँ, उन्हें दिव्य-कर्म की ओर प्रेरित करें, उनके जीवन में ज्योतिर्मय दीप जलाएँ । महाप्रभु की इस पावन भूमि में पुन: उस दिव्य देशना को साकार रूप देना है, जन-जन के जीवन में उस धारा को बहाना है । अतः महत्त्व है इस मरुभूमि में सत्कर्म की, सद्धर्म की पवित्र गंगा की धारा को प्रवाहित करते रहना । आपने पढ़ा है, सुना है भगीरथ चल पड़े गंगा को लाने के लिए । उनके प्रयत्न की एक लम्बी कथा है । कथा के शब्दों को नहीं, उसके भाव को समझें, उसे जीवन में उतारें । वह किसी बनी-बनाई लकीर पर नहीं चला । उसने साधना की और निरन्तर तेज कदमों से चलता रहा । आगे-आगे भगीरथ दौड़ता है और उसके चरण चिह्नों पर गंगा की धारा बहती आती है, उसी तेज गति से । भगीरथ के कदम बराबर बढ़ते रहे । वे न कहीं रुके, न कहीं विश्राम या विराम लिया । उसी का परिणाम है कि गंगा भी निरन्तर बहती रही । आप भगीरथों ने इस पावन तीर्थ भूमि में गंगा को प्रवहमान करने का जो महान उपक्रम किया, उसका भी एक इतिहास है । आप बँधी - बँधाई लकीरों (४३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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