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________________ भगवान महावीर की दृष्टि में जीवन-विकास का मार्ग श्रमण भगवान महावीर ने अपने महान अरहन्त-काल में तीस वर्ष तक ज्ञान की गंगा बहाई । उनके निर्वाण के पश्चात् काल का विशाल प्रवाह बहता रहा और काल के उस महाप्रवाह में क्या-क्या बह गया, जिसके अस्तित्व का कोई पता नहीं है । किन्तु, वह दिव्य वाणी, वह शब्द-गंगा एवं भाव-गंगा निरन्तर बहती आ रही है । काल का प्रवाह उसके अस्तित्व को पूर्णरूप से बहा नहीं सका। यदि हम उसमें चिन्तन की गहरी डुबकी लगाएँ, तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसमें कितनी विराटता है, कितनी शीतलता है, कितनी पवित्रता है । उसकी एक-एक बून्द अमृत की बून्द है । पर, वह पीयूष तब मिलेगा, जब उसकी गहराई में उतरेंगे । सिर्फ ऊपर की सतह पर तैरने से नहीं । गहरी डुबकी लगानी होगी । तभी हमारे ये द्वन्द्व, संघर्ष, विग्रह, मतभेद समाप्त होंगे । उस महान अभेदवादी के अभेद के उद्घोष की दिव्य-ध्वनि, जो देवतात्मा वैभारगिरि के उत्तुंग शिखरों से गूंजती रही है, आज भी उसे सुना जा सकता है। आज जाति के नाम पर, धर्म के पवित्र नाम पर, सम्प्रदाय एवं पंथों के नाम पर जन-मन में कितनी घृणा, कितना द्वेष फैलाया जा रहा है । जिसके विरोध में वह ज्योति-पुरुष निरन्तर उद्घोषणा करता रहा है -- "न दीसइ जाइ विसेस कोई " -जाति की, जन्म की कोई विशेषता नहीं है । उसने दृढ़ स्वर में कहा-जन्म तो पूर्व कर्म के अनुसार किसी भी कुल में हो गया । उससे क्या है? मैं तुम्हारा जन्म नहीं पूछता, तुम्हारी जाति नहीं पूछता, मैं तो सिर्फ तुम्हारा कर्म पूछता हूँ, तुम्हारा कर्म देखता हूँ | महत्त्व जाति का नहीं, कर्म का है । (४२९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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