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देह-बल और दृष्टि बल आदि को ध्यान में रख कर ही साधना का पथ प्रशस्त हो सकता है । मक्खी, मच्छर, गरुड़ के पंख लगा कर एक इंच भी इधर-उधर उड़ नहीं सकते और इसी प्रकार गरुड भी मक्खी-मच्छर के पंख लगा कर हिमगिरि के उच्च शिखरों तक उडान नहीं भर सकता । इसीलिए जैन-शासन में यथाशक्ति का मंगलमय उद्घोष है । आचार्य उमास्वाति का “शक्तितस्त्यागतपसी"-वचन इसी उद्घोष को सहस्राधिक वर्षों से प्रमाणित करता आ रहा है ।
१८. आसन्नलब्ध प्रतिभ : यह महान ज्ञान-गुण ज्ञानावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम से प्राप्त होता है । इसका अर्थ है- तत्काल समयानुकूल निर्णायक बुद्धि का जागृत होना । कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि उस समय यथोचित समाधान के लिए न शास्त्र देखे जा सकते हैं, न किसी अन्य से परामर्श किया जा सकता है । विचार कीजिए, किसी सिद्धान्त विशेष पर वाद अर्थात् शास्त्रार्थ हो रहा है । वादी-प्रतिवादी दोनों ही ओर से अपने-अपने तर्कों की अबाध गति से बाण-वर्षा कर रहे हैं | ऐसी स्थिति में वाद-लब्धि का धनी प्रतिभाशाली एवं प्रत्युत्पन्नमति महान ज्ञानी ही विजय प्राप्त कर सकता है और शासन की महत्ती प्रभावना को गौरवशाली बना सकता है । हमारे महान दार्शनिक आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी, उमास्वाति, सिद्धसेन दिवाकर, वादिदेवसूरि, श्री समन्तभद्र, श्री अकलंक एवं वादिराज आदि इसी महत्तम कोटि के शासन प्रभावक वाद-कुशल आचार्य थे ।
जुलाई १९८६
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