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७–१३ । यह सरलता निष्कपटता नाटकीय रूप से दिखाऊ नहीं होनी चाहिए । अन्तर्हृदय से सहज भाव से उद्भूत सरलता ही साधना का प्राण है । ऐसे निष्कपट आचार्य के संघ में ही साधकों का जीवन छल-छद्म मुक्त हो सकता है। जो स्वयं मायावी है, उसका संघ मायावी होगा ही । जहाँ गुरु और शिष्य लोभी एवं लालची बनकर छलकपट के दाव खेल रहे हों, उन दुर्योधनों से भला किसका मंगल एवं कल्याण हो सकता है ?
१०. स्थिर परिपाटी : आचार्य को निरन्तर शास्त्राभ्यास में संलग्न रहना चाहिए | स्पष्ट एवं गहन चिन्तन से ही अनुयोग की परिपाटी स्थिर हो पाती है । ऐसा महान् अभ्यासी आचार्य सूत्र एवं अर्थ की परूपणा में कहीं स्खलित नहीं होता । जो आचार्य शास्त्राभ्यास छोड़ कर इधर-उधर की अडंगेबाजी में लगा रहता है, वह समय पर सूत्रार्थ के स्पष्ट व्याख्यान में दिङ्मूढ हो जाता है । समयोचित निर्णय करने की क्षमता इस प्रकार के अनाभ्यासी आचार्य से कैसे सम्भव हो सकती है ?
११. गृहीत - वाक्य : हर व्यक्ति के लिए, खासकर नेता पद के लिए वचन-लब्धि आवश्यक है । उपादेय वचन वाले महान व्यक्तित्व के थोड़े-से शब्दों में भी वह शक्ति होती है, कि श्रोता श्रद्धा भाव से तत्काल उन्हें ग्रहण कर लेता है । गृहीत- वाक्य गुणवाले व्यक्ति के वचन सारगर्भित होते हैं, निस्सार नहीं ।
१२. जित परिषद् : नेतृत्व के लिए यह महत्त्वपूर्ण गुण है । कितनी ही बड़ी सभा हो एवं सभा में उपस्थित जनता किसी भी मनःस्थिति में हो, कुशल नेतृत्व का धनी नेता सभा पर यथोचित नियंत्रण रख सकता है । विक्षोभ की स्थिति में भी घबराता नहीं ।
१३. जित - निद्र : आचार्य को जित - निद्रा अर्थात् निद्रा का विजेता होना चाहिए । अल्प- काल की निद्रा से ही जो पर्याप्त स्वस्थता प्राप्त कर लेता है, वह रात्रि के एकान्त क्षणों में ध्यान, सूत्रार्थ - चिन्तन ठीक तरह कर सकता है तथा अपने संघ के संरक्षण की भी उचित विचारणा करके संघ को व्यवस्थित बनाए रख सकता है ।
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