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उतरती आ रही है
“यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति ।
जहाँ प्रभावशाली एवं मनोहारी सुन्दर रूप है, वहाँ गुणों का निवास होता है । यही हेतु है कि सूत्र सिद्ध भक्तामर आदि स्तोत्रों में तथा प्राचीन आगमों में तीर्थंकरों, गणघरों एवं अन्य विराट पुरुषों के दिव्य रूप का वर्णन किया गया है । सर्व साधारण व्यक्ति ऐसे महापुरुष के दर्शन से सहज ही उनके प्रति आकृष्ट होते हैं, उनका मन, वाणी, कर्म से बहुमान करते हैं एवं उनके द्वारा निर्दिष्ट पथ पर प्रसन्नता के साथ अग्रसर होते रहते हैं । यदि संघ का नेता लूला, लँगड़ा, काना एवं कुरूप हो तो वह स्वयं भी परिहास का पात्र होता है और उसका संघ भी । स्पष्ट है, ऐसे कुरूप व्यक्ति के प्रति समादर की भावना नहीं हो पाती ।
५. संहननयुत : संहनन का अर्थ है-एक विशिष्ट शारीरिक गठन एवं शक्ति । जिसका शरीर सक्षम होता है, वह इधर-उधर के उपद्रवों से विचलित नहीं होता । कष्ट के क्षणों में उसे खेदानुभूति नहीं होती । दृढ़ संहनन का नेता उपद्रव-काल में स्वयं सहर्ष आगे बढ़कर अपने अनुयायी जनों का यथोचित संरक्षण कर सकता है । जो स्वयं ही मरचीला है एवं अपने जीवन को ही निर्जीव शव की तरह ढो रहा है, वह दूसरों की रक्षा क्या खाक करेगा?
६. धृतियुत : धृति का अर्थ है-धैर्य, शक्ति । एक उच्चस्तरीय दृढ़ता एवं स्थिरता । दृढ़ मनोबल का नेता विपत्ति के क्षणों में दिग्भ्रान्त नहीं होता । वह सिंह पुरुष अपने असाधारण मनोबल के द्वारा तत्काल यथोचित निर्णय लेता है और अपने संघ को पवनाहत घास-पात की तरह इधर-उधर दिशाहीन स्थिति में भटकने नहीं देता | कायर व्यक्ति, जबकि स्वयं दिशाहीन हो जाता है, तो वह दूसरों का क्या दिशा निर्देशन करेगा?
७. अनाशंसि : आचार्य को अनाशंसि अर्थात् निस्पृह होना चाहिए । कामनाग्रस्त आचार्य इच्छाओं का दास होता है, अत: वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकता है। निस्इ व्यक्ति ही मुक्त-भाव से स्पष्ट सत्य का प्रतिपादन कर सकता है, अन्यथा वह लोगों के दबाव में आकर अर्थ का अनर्थ भी कर डालता है, जिसके फल-स्वरूप संघ में दरारें पड़ जाती हैं । सही नेता वह
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