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भगवती अनुकम्पा
अनुकम्पा, करुणा या दया हजारों नामों से बोलिए, यह मानवता का मध्य बिन्दु है, मानवता की प्राण-शक्ति का मूल स्रोत है । मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज का अस्तित्व है परस्पर के सहयोग पर और सहयोग का आधार है मानव हृदय की कोमलता पर, परस्पर के सुख-दु:खों की सहज संवेदनात्मक अनुभूति और, यह अनुभूति ही अनुकम्पा, करुणा आदि अनेक पवित्र नामों से विहित है
तनधारियों में श्रेष्ठ मानव तन है । वह सुन्दर है, सुरूप है । पर, उसके अन्तर्मन में करुणा की अमृत-धारा प्रवाहित नहीं है, तो वह क्या है ? वह जंगली पशु हो सकता है, राक्षस, पिशाच हो सकता है, और हो सकता है, बिना किसी खाने-पीने के लालच से यों ही किसी को काट खाने वाला साँप या बिच्छू । कोई साँप या बिच्छू से पूछे कि क्यों भाई, तुमने अमुक को काट खाया, तो खाया, कैसा था वह खाना-खट्टा या मीठा ? क्या उत्तर है इसका उनके पास ?
अनुकम्पा किसी को हेतुपूर्वक भी पीड़ा देने की बात नहीं सोच सकती। वह अहेतुक पीड़ा दे, तो कैसे दे किसी को ? मानव जाति को परस्पर एक-दूसरे से जो दुःख मिल रहा है और मोहमूद मानव तनधारी के द्वारा जो अन्य पशु-पक्षी आदि को भी पीड़ा मिल रही है, उसका मूलतः निराकरण अनुकम्पा भाव के द्वारा ही हो सकता है । धरती पर सुख-शान्ति का जीवित स्वर्ग करुणा ही उतार सकती है । यदि करुणा नहीं है, तो धरती नरक है । जो मानव परस्पर एक-दूसरे का दु:ख दूर करते हैं, यथावसर आवश्यक सुख पहुँचाते हैं, वे धरती पर रहते हुए भी स्वर्ग में रहते हैं । स्वः अर्थात् सुख । है । और जो परस्पर सकारण या अकारण पीड़ा देते हैं, हानि पहुँचाते हैं, रुलाते हैं, वे धरती पर रहकर भी नरक
सुख का नाम ही स्वर्ग
परस्पर एक-दूसरे को
में वास करते हैं । कहा है नरक का स्वरूप
“परस्परोदीरित दु:खाश्च ।”
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