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आचार्य कौन ?
खण्ड १
आज के युग का मानव महत्त्वाकांक्षा के भीषण रोग से इतना ग्रस्त है, कि उसके सम्बन्ध में क्या कहा जाए और क्या नहीं ? विचित्र स्थिति है मानव की । यह रोग राजनीतिक एवं अन्य सामाजिक क्षेत्रों में तो फैला हुआ था ही, दुर्भाग्य है कि विशुद्ध आध्यात्मिक क्षेत्र के रूप में प्रख्यापित धर्म - परम्पराओं में भी अबाध गति से फैल रहा है और तो क्या, जैन-धर्म जैसे निर्ग्रथ कोटि के धर्म में भी उक्त रोग की ग्रन्थियाँ उद्धत हो रही हैं जिन्हें धार्मिक जीवन का कैंसर कहा जाए, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
आजकल जो भी समाचार इधर-उधर पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने-सुनने को मिलते हैं, सब ओर पद - महोत्सवों की धूम-धाम है । पद की गरिमा क्या है, विशेषतः धार्मिक पदों की, इस ओर कम ध्यान दिया जा रहा है । अधिकतर राजनीतिक क्षेत्र में पनप रही तुष्टीकरण की नीति ही अपनाई जा रही है । यह व्यक्ति विशेष की आलोचना नहीं है और न किसी विशेष परम्परा की । यह तो एक मात्र पदों की गरिमा का ही उद्बोधन है ।
और सब पदों को एक ओर छोड़ देता हूँ । प्रस्तुत में आचार्य पद की महत्ता का ही उत्तंकन है । भारतीय संस्कृति में आचार्य का बहुत बड़ा महत्त्व है। जैन, बौद्ध, वैदिक- तीनों ही परम्पराओं के पदों की शृंखला में आचार्य का पद सर्वाधिक महत्त्व का है । संघ का नेतृत्व आचार्य करता है । यदि पद के अनुरूप कुशल नेतृत्व है, तो संघ गरिमा के उत्तरोत्तर शिखरों पर आरोहण करता जाता है । यदि यह कुशलता नहीं है, तो प्राचीन आचार्यों के शब्दों में वह केवल “अत्थि संग्गाहो” अर्थात् केवल निर्जीव हड्डियों का ढांचा बन जाता है । यही हेतु है कि प्राचीन काल से ही आचार्य के सद्गुणों का मुक्त गान होता आ रहा है ।
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