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पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणि अस्स
८,८
अरहा णं अरिट्ठनेमि
णमी णं अरहा "१५, २
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अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स ” १८, २
अरे णं अरहा
३०, ४
अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंत
पूजार्हन्तीत्यर्हन्तः |
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नमस्कार महामन्त्र का मंगलाचरण के रूप में पूर्ण पाठ सर्व प्रथम पुंचमांग भगवती सूत्र के प्रारम्भ में मिलता है । भगवती सूत्र पर महान् वृत्तिकार अभयदेवसूरि की महत्त्वपूर्ण वृत्तिटीका है । उक्त वृत्तिवाले भगवतीसूत्र में नमो अरहंताणं पाठ मूल रूप से स्वीकृत किया है और उसका संस्कृत रूप 'नमो अर्हभ्यः'करके निम्नांकित शब्दों में पूजातिशय का वर्णन है -
“ अर्हभ्यः - अमरवर - विनिर्मिताशोकादिमहाप्रातिहार्यरूपां
यदाह
च अरहा अरहंता तेण वुच्चति ।"
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१०, ४
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अपनी टीका में आचार्य देव अरिहंताणं
पाठान्तर के रूप में स्थान देते हैं । उन्हीं के शब्दों में
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अरिहंत वंदण-नमंसणाणि, अरिहंति पूयसक्कारं, सिद्धिगमणं
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३४, २४
अरिहन्ताणं इति पाठान्तरम् ।" " अरूहन्ताणं इत्यपि पाठान्तरम् ।”
और ' अरुहंताणं' को
उक्त उल्लेख पर से स्पष्ट है कि ' अरहंताणं ' पाठ मुख्य है एवं अन्य दोनों पाठ गौण हैं । अतः साधक को प्रबुद्धता की दृ: से मुख्य पाठ ही स्वीकार करना चाहिए ।
(३८६)
दशवैकालिक सूत्र पर छठी शताब्दी के महान श्रुतधर आचार्य अगस्तसिंह सूरि ने प्राकृत में चूर्णि की रचना की है। उसके मंगलाचरण के रूप में उन्होंने जो गाथा प्रस्तुत की है, उसमें 'अरहन्त' शब्द ही प्रयुक्त है । देखिए, गाथा का पूर्वार्द्ध
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अरहंत - सिद्ध-विदु-वायाणारिए णमिय सव्वसाधू य ।
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