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________________ भारत के प्राचीन इतिहास में गो-पालन का महत्त्वपूर्ण स्थान है । कुछ अपवादों को छोड़कर गाय का गोमाता के रूप में उदात्त गुणगान अनुगंजित है भारतीय वाङ्मय में । वैदिक एवं पौराणिक काल में महर्षियों के आश्रम निर्जन वनों में होते थे और वहाँ गायों का पालन अपने ही परिवार के एक महत्त्वपूर्ण पूज्य व्यक्ति के रूप में होता था । कामधेनु और नन्दिनी आदि की कथाएँ इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण हैं । जैन - परम्परा में भी गो-पालन का महत्त्व है । इधर-उधर दूर न जाएँ, श्रमण भगवान् महावीर के ही काल की बात कर लें । भगवान महावीर के गृहस्थ शिष्य प्रमुख श्रावक आनन्द के यहाँ चालीस हजार गायों का एक विराट समूह था । अंग - साहित्य का उपासकदशांग सूत्र इसका साक्षी है । कुछ अन्य श्रावकों के यहाँ भी गायों के अनेक विशाल व्रज थे। एक-एक व्रज ( गोकुल ) में दस हजार गायें होती थीं । चम्पा नगरी के कामदेव श्रावक के पास ६ व्रज थे । वाराणसी के चलणीपिया श्रावक के पास गायों के आठ व्रज थे । वाराणसी नगरी के सुरादेव श्रावक के पास गायों के छह व्रज थे । आलभिका नगर के चुल्लशतक श्रावक के पास छह व्रज थे । काम्पिल्यपुर नगर के कुंडकौलिक श्रावक के पास गायों के छह व्रज थे । पोलासपुर निवासी श्रावक सकडालपुत्र के पास गायों का एक व्रज था । राजगृह के महाशतक श्रावक के पास गायों के आठ व्रज थे । श्रावस्ती के श्रावक नन्दिनीपिया के पास गायों के चार व्रज थे और वहीं के सालिहीपिया श्रावक के पास भी चार व्रज थे । उक्त कथनों पर से स्पष्ट है, मानव के साथ गाय का एक महनीय उदात्त सम्बन्ध रहा है । मध्य युग में गायों की रक्षा के लिए भारतीय दयालु मानवों ने संघर्ष में हँसते-हँसते अपने सिर कटाए हैं । आज उन्हें भले ही कोई भूल जाए, किन्तु इतिहास उन्हें कैसे भूल सकता है । और, स्पष्ट है कि इन दयावीरों को भूलना कृतघ्नता के सिवा और क्या है ? भारत में ही नहीं, विदेशों में भी गोमाता ने अपनी विशिष्टता स्थापित की है । गो के दुग्ध को ही मानव जीवन संपोषण के हेतु एक विशिष्ट दुग्ध (३७८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001307
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size12 MB
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