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कुछ विचारणीय प्रश्नबिन्दु
धरती पर असंख्य प्राणी हैं । उनमें एक प्राणी है, जिसे हम मनुष्य कहते हैं, इन्सान कहते हैं, आदमी कहते हैं । और, एक आकाश का प्राणी है, जिसे हम देवता कहते हैं, सुर कहते हैं, फरिश्ता कहते हैं, अनेक नाम हैं उस प्राणी के | इन दो प्रकार के प्राणियों में एक ओर धरती का मनुष्य है और दूसरी
ओर आकाश का देव । भारत की आध्यात्मिक धार्मिक सभी परम्पराओं के प्रबुद्ध पुरुषों ने मानव की श्रेष्ठता को एक स्वर से स्वीकार किया है । आगमों में स्पष्ट लिखा है- मानव से बढ़कर अन्य कोई प्राणी श्रेष्ठ नहीं है । देव भी मानव-चरणों में नत-मस्तक होता है |
किन्तु, दूसरी ओर देवों की महिमा के गान भी इतने बढ़ा-चढ़ा कर दिए हैं कि साधारण मनुष्य ललचाई आँखों से देवताओं के वैभव की ओर देखना शुरू कर देता है । बीच के काल में कुछ ऐसे भी शास्त्रकार हुए हैं, जिन्होंने कहा- तुम यह मन्त्र जपो, वह तन्त्र करो, ऐसा यन्त्र रखो, तो देवता तुम पर प्रसन्न हो जाएँगे और तुम्हारी सभी समस्याओं का निराकरण कर देंगे । इन भ्रांत धारणाओं के जाल में साधारण इन्सान ऐसा उलझ गया कि वह देवताओं की उपासना में, पूजा-अर्चना में, उन्हें प्रसन्न करने में १५-२० वर्ष गुजार देगा, परन्तु स्वयं स्वयं पर विश्वास करके स्वयं के पुरुषार्थ से अपनी समस्या का हल करने का प्रयत्न नहीं करेगा | वह देवों की महिमा के पीछे पागल बन कर स्वयं की शक्ति को भूल जाता है ।
मध्य-युग में जैन आचार्यों ने भी धर्म की उल्टी गंगा बहा दी । वस्तुत: धर्म था- बन्धन -मुक्ति के लिए | धर्म एवं अध्यात्म-साधना थी-- राग द्वेष की धारा को क्षीण करने के लिए । परन्तु, बाद के आचार्यों ने उल्टी गंगा बहानी शुरू कर दी । आज उनका स्वर ही बदल गया । उन्होंने कहना शुरू कर दियाधर्म, तप, संयम, सदाचार , ज्ञान, दर्शन, चारित्र की साधना करो, इससे तुम
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