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________________ इस अवस्था में संकुचित साम्प्रदायिकता के वशीभूत न होते हुए उसपर कठोर प्रहार कर यथार्थ आत्मधर्म का निर्भीक पुरस्कार कर धर्मानुयायियों में धर्मपरिवर्तन रूपी युगधर्म प्रसृत कर रहे क्रान्तदर्शी महामुनि की यह आधुनिक धर्म गाथा है। इस में तनिक भी सन्देह नहीं है। ___मुनिश्री फरमाते हैं, "हर यात्री का अपना ही एक नया पन्थ होता है। यह परम सत्य है कि मार्ग बने हुए नहीं होते, बनाने पड़ते हैं। ....... जो चलना जानता है, उसके लिए जहाँ भी कदम पड़ते हैं, पथ बन जाता है। ..... समाज का गौरव हर किन्ही पुराने नियमों को पकड़े रहने में नहीं है, अपितु जीवन विकास कारी नये नियमों के सृजन में है।" इस परसे मुनिश्री का पुरोगामी दृष्टिकोण स्पष्ट होता है। “सत्यसंशोधन याने चिन्तन। पूर्वाग्रहमुक्त चिन्तन ही सत्य-चिन्तन है।” यही है मुनिश्री के आत्म चिन्तन का सार और उसी का आविष्कार है यह विचार गाथा। दुनिया भर का शाश्वत सत्य एक ही होता है। उसकी देश-काल-स्थिति की सीमा नहीं होती। परन्तु लोक व्यवहार में उतरने वाला सत्य सापेक्ष होता है, उसमें देश-काल-परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होते रहता है। रूढियाँ, रीतिरिवाज मूलत: धर्म नहीं हैं। उन्हें धर्म समझना बडी भारी भूल है। कारण ते समाज के सामयिक रूप हैं। धर्म न तो प्राचीनता में है, न अर्वाचीनता में, वह तो समीचीनता में है। यही है मुनिश्री का प्रतिपादन। 'भेदे अभेद:' मानव संस्कृति की और खास कर भारतीय संस्कृति की विशेषता है। इस सत्य की प्रतीति करनी हो तो मेरा कथन सत्य है, दूसरों का असत्य, यह दावा-अभिमान त्यागना होगा। हर एक को अपनी दृष्टि अनुसार सत्य का अनुभव होता है। सिर्फ हम ही सत्य के ठेकेदार नहीं हैं, यह समझना होगा। औरों के सत्य प्रत्यय का अनादर न हो, बल्कि आदर किया जाय-यही है मानवी सुखसंवाद का रहस्य। मतभेद होने पर मनभेद न हो, वाद हो तो भी संवाद हो, मतिभिन्नता होने पर संगति हो-इसी सहिष्णुता, समन्वय एवं सहजीवन की दीक्षा मानव समाज को देने का महान कार्य भगवान महावीर उपदेशित अनेकान्त दर्शन ने सुलभ किया है। “अनेकान्त की दिव्य ध्वनि है-मेरा ही सत्य मात्र सत्य नहीं है, सत्य अनन्त है। और वह जहाँ भी कहीं है, जिस किसी भी रूप में है, जिस किसी के भी पास है-मेरा है, मेरा है। सत्य मेरे लिए समर्पित नहीं है, अपितु मैं सत्य के लिए समर्पित हूँ।” मुनिश्री की इस वाणी पर लोक यदि ध्यान देंगे, तो समाज जीवन में शान्ति-प्रेम के वातावरण का निर्माण करना सहज होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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