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________________ भी उसके लिए भक्ष्य वस्तु बन गई थी। मनुष्य एक प्रकार से मानवी वृत्ति से राक्षसी वृत्ति पर उतर आया था और वह भी दैवी वृत्ति की पवित्रता के नाम पर । करुणा और दया की ज्योति मनुष्य की आँखों से दूर हो चुकी थी । कहना तो यह चाहिए कि धर्म का कोई अंग ऐसा नहीं बच रहा था, जिसमें सत्पथ के निर्देशन की क्षमता शेष रही हो । ऐसे कठिन समय में भगवान् महावीर को हम सत्य-धर्म का निरूपण करते हुए देख कर निश्चय ही विस्मयविभोर हो उठते हैं । अर्थहीन कर्मकाण्ड के स्थान में अध्यात्मभाव की नई दृष्टि प्रदान कर वे धर्म को अमंगलभूमि से मंगलभूमि में स्थापित कर देते हैं । शुभ और अशुभ की सत्यलक्षी यथार्थ व्याख्या कर वे मनुष्यमात्र की आँखें खोल देते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह की गुंजाइश नहीं । सभी प्राणियों में परमात्मतत्व की भावना अपनाकर मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी हो गया । मानवता की दिव्य-प्रभा से मानव-हृदय आलोकित हो उठा। सामाजिक क्षेत्र में भगवान महावीर की जो देन है, वह तो सर्वथा क्रान्तिकारी देन कही जायेगी । समत्व की चर्चा जो कि बीच में विलुप्त हो चुकी थी, उनके द्वारा पुनः विशुद्ध रूप से प्रचारित हुई । व्यवहार में समता का जीवन मनुष्यों को पुन: उनके द्वारा प्राप्त हुआ | उन्होंने शूद्र और नारी-समाज के लिए उत्थान का मार्ग प्रशस्त कर दिया । चिर-पतितों और उपेक्षितों के जीवन में प्रथम बार जागृति आई | युगान्तर स्पष्ट दर्शित होने लगा । शूद्रों की छाया से अपवित्र होने की आशंका पवित्र विप्रों के लिए नहीं रह गई । नारी को केवल भोग्य या दासी बना कर नारकीय जीवन बिताने की आज्ञा देने वालों को अपनी क्रूरता पर पश्चात्ताप होने लगा । भगवान महावीर के जन्म से पूर्व का इतिहास आज अलभ्य नहीं रह गया है, हम उसके पृष्ठों में समाज का जो हृदय-द्रावक रूप पाते हैं, उसके स्मरणमात्र से रोमांच हो आता है। बाजार में खुले आ. मातृजाति का क्रय-विक्रय होता था, उन्हें पशुओं की तरह खरीदने के लिए सड़कों पर बोलियाँ लगाई जाती थीं ।' इतना ही क्यों, यदि उन दास-दासियों की मृत्यु स्वामी की मारों से हो जाती थी तो उसकी सुनवाई के लिए कहीं स्थान नहीं था। कैसी विडम्बना थी कि उनके हाथों भिक्षा ग्रहण करने में भिक्षुक भी अपना उत्तराध्ययन सूत्र २३ वा अध्ययन उत्तराध्ययन १२ वा अध्ययन महाबीर-चरिय-गुणचन्द्र (३८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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