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________________ कभी पहले हुआ है और न अब हो सकता है । धर्म हो या समाज, अन्तत: उसे यथार्थ का सामना करना ही पड़ेगा । युग-धर्म जमानावाद नहीं है, जैसा कि कुछ महानुभाव शेखियाँ बघारते हैं। हर तीर्थंकर युग-धर्म का ही तीर्थंकर होता है । अनादि निधन सनातन आत्म-धर्म का कौन तीर्थंकर हो सकता है ? कौन 'आइगराणं' धर्म की आदि करने वाला हो सकता है ? युग-धर्म के लिए ही आदिकर का विशेषण है | अब यान का प्रश्न साधु-संघ का है । इस सम्बन्ध में मेरा स्पष्ट अभिमत है कि वर्तमान में साधुओं के सामने साध्वियों जैसा कोई आपवादिक प्रश्न नहीं है । अत: भयंकर रोगादि का विशेष कारण हो, तो यान का उपयोग किया जा सकता है । वह भी तात्कालिक ही | रोग के बहाने लंबे समय तक इधर-उधर घूमते रहना, सैर सपाटा करना, कथमपि उचित नहीं है । यह स्पष्ट ही मर्यादाहीनता है । हाँ, एक बात प्रस्तुत में अवश्य विचारणीय है | 'जो मुनिवर विशिष्ट प्रवक्ता हैं, धर्म-शासन के कुशल प्रचारक तथा प्रभावक हैं, जनता को प्रतिबोध देने में सभी भाँति सक्षम हैं, यदि वे रोगादि के कारण असमय में ही अपंग जैसे हो गए हैं, पाद विहार में प्रमाणित रूप से अक्षम हो गए हैं, अत: वे अपेक्षा वश यान का प्रयोग करना चाहें, तो उन्हें इसके लिए छूट रहनी चाहिए । मैं इसे ठीक नहीं समझता कि वर्षों के वर्ष लाचार होकर वे एक ही स्थान में शून्य रूप से अवरुद्ध रहें, उनकी प्रतिभा का, उनके ऊर्जस्वल प्रभावी व्यक्तित्व का सर्व साधारण जनता को कोई लाभ न मिले | मैंने देखा है, ऐसा निर्माल्य जीवन बिताते हुए अनेक मनीषियों को दु:खद स्थिति में । छूट भी अपनी मानसिकता पर निर्भर है, यान प्रयोग के लिए एकान्तिक बाध्यता नहीं है । यदि किसी को एकत्र निवास की स्थिति ही अभीष्ट है और वहीं उन्हें मनोऽनुकूल स्व-पर कल्याण का कार्यक्रम प्राप्त है, तो कोई जरूरी नहीं, वे यान का उपयोग करें ही | प्रश्न है विशेष स्थिति में भी यान का उपयोग कहाँ तक किया जाए ? इसका उत्तर मैं क्या दे सकता हूँ । यह तो व्यक्ति के अपने स्वयं के विवेक पर निर्भर है । हाँ, यह मैं कह सकता हूँ, यान का आवश्यक स्थिति तक ही प्रयोग किया जाए, अनावश्यक प्रयोग से बचा जाए, बचना ही चाहिए । विशेष परिस्थिति की छूट का मर्यादाहीन उपयोग साधक को अन्तत: पतन की ओर ही ले जाता है । (२६२) Jain Education International Fór Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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