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राजस्थान जैसे सुपरिचित एवं जैन समाज से प्रभावित प्रदेशों में यह हाल है, तो अन्यत्र अपरिचित प्रदेशों एवं गाँवों में क्या हो सकता है, अपने में स्वयं समझ लेने की बात है ।
कुछ ने कहा है –—हमारे तो मैले कपडे हैं, लोच करते हैं, कोई शृंगार नहीं, फिर हमारे साथ शीलभंग जैसा अभद्र व्यवहार कोई क्यों करेगा ? मालूम है, गावों में हरिजन बालाएँ हैं, क्या रूप और साज-शृंगार है कामोत्तेजक जैसा उनके पास । फिर भी आए दिन उन पर अत्याचार हो रहे हैं । कामान्ध पशु
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के प्रति श्रद्धा और
कुछ नहीं देखता है नारी में, सिवा एक अंग के। कृपया झूठे तर्क उपस्थित न करें । चमत्कार की बात भी की जाती है । नवकार मंत्र और अन्य स्तोत्र तथा शील के प्रभाव का भी बखान किया जाता है और कहा जाता है, इस पर कि दुराचारी हमारा कुछ नहीं कर सकता । बहुत ठीक । पर, आपको मालूम है आर्य कालक के युग की साध्वी सरस्वती का अपहरण अन्य भी सती साध्वियों के अपहरण की घटनाएँ ? उनकी नवकार मंत्र आदि शील का प्रभाव तो आज के युग से कहीं अधिक ही था । कहाँ गए थे तब शीलरक्षक शासन देवता ? कहाँ गया था नवकार मंत्र आदि का प्रभाव ? अन्तत: अपहृत साध्वियों की विमुक्ति के लिए, धर्म-संघ की रक्षा के लिए आर्यकालक जैसे उग्र क्रिया-काण्डी साहसी आचार्य सम्राटों को युद्ध तक का सहारा लेना पड़ा। चमत्कार आदि की यदि कभी कोई आकस्मिक रूप से घटना घट भी जाए, तो उसे हर व्यक्ति तथा हर युग के साधक की सुरक्षा के लिए अमोघ अस्त्र नहीं बनाया जा सकता ।
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कुछ मुँह बोले और मुँह बोलियों ने कहा है- ' शील रक्षा के लिए प्राण दे देना चाहिए । अतः हम शील भंग से पहले प्राण दे देंगे । मैं पूछता हूँ, आज कहाँ हैं वे शूरमा, जो ऐसा करने को तैयार हैं । महारानी धारणी की तरह प्राण देने वाली सती शिरोमणी पूर्व युग में विरल ही होती थीं । प्राण दे देने की बात कहना तो सहज है, परन्तु समय पर उसे क्रियान्वित करना तो प्रश्न चिह्न ही है प्राय: इस पर ।
यानारोहण कोई बहुत बड़ा अनैतिक पाप नहीं है । आवश्यकतानुसार उसका उपयोग पुराकाल से होता आया है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में विमानचारी मुनियों के श्रद्धास्पद उल्लेख हैं।
जलयान का तो
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