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________________ स्वयं निर्णय करें ? बीसपंथी, तेरापंथी आदि के दिगम्बर-परम्परा में अनेक भेद-प्रभेद हैं। कौन कैसे पूजा करे, प्रश्न सुलझ नहीं रहा है । एक ही तीर्थ क्षेत्र में अलग-अलग मन्दिर हैं, अलग-अलग पूजा पाठ हैं, और इन भेदों की जड़ों को सींचने वाले अलग-अलग मान्यता वाले धर्मगुरु मुनि हैं। श्वेताम्बर-परम्परा की स्थिति भी कम चिन्तनीय नहीं है । खरतरखच्छ, तपगच्छ आदि कितने अधिक भेद हैं जिनमें पर्युषण पर्व के महीनों का द्वन्द्व है, पर्व-तिथियों का और तीर्थंकरों के कल्याणकों का झगड़ा है । मुनियों के पात्रों का लाल और काला रंग भी कम विवादास्पद नहीं है और भी तीन थुई-चार थुई आदि के छोटे-बड़े अनेक मतभेद हैं, जो इन पक्षों को आपस में मिलने नहीं देते, एक नहीं होने देते हैं । स्थानकवासी परम्परा की भी बात कर लें। ऊपर में भले ही यह एक रूप में परिलक्षित होती है, परन्तु अन्दर में वह बहुत दूर तक बिखरी हुई है। पर्युषण पर्व के महीनों का यहाँ भी चक्र हैं । उदय या अस्त की तिथि का विवाद भी चलता ही रहता है । मुखवस्त्रिका किसी संप्रदाय की अधिक लंबी-चौड़ी है, तो किसी की छोटी है | मुखवस्त्रिका का आग्रह तो इतना उदग्र है कि सारा धर्म इसी पर केन्द्रित होकर रह गया है। जैन धर्म की अन्य परंपरा के साथ जो मुखवस्त्रिका नहीं रखती या मुख पर नहीं बाँधती हैं उन्हें साघु तक मानने को तैयार नहीं हैं, मुखवस्त्रिका के एक पक्षी आग्रह | अनेक स्थानों से दीक्षा पत्रिका एवं पर्युषण पत्रिकाएँ प्रकाशित हुई हैं, उनमें भगवान महावीर का चित्र, जो इनकी मान्यता के अनुसार मिथ्यात्व है, फिर भी भगवान का चित्र है और मुख पर मुखवस्त्रिका अंकित है | भगवान महावीर का धर्म एवं दर्शन तो इतना उदात्त एवं विराट है कि उन्होंने अन्य मत-मतान्तरों के साधकों को, यहाँ तक कि गृहस्थों को भी वीतराग-भाव अर्थात् समत्व की पूर्णता होने पर मोक्ष की उपलब्धि निरूपित की है और आज के मान्यतावादी जैन हैं कि उन्होंने मुक्ति को, मुक्ति के लिए प्रयुक्त साधना को भी अमुक वेषभूषा एवं अमुक बाह्याचार आदि में केन्द्रित कर दिया है । समत्व के पक्षधर विषमताओं की दल-दल में फँसे पड़े ध्वनिवर्धक में बोलना या नहीं, केला खाना या नहीं, मिट्टी का पात्र रखना या नहीं, मलिन वस्त्र धोना या नहीं, धोना तो साबुन आदि लगाना या नहीं- इस प्रकार हाँ और ना दोनों ही पक्ष हैं और इसी अपनी हाँ और ना पर सही साधुता का मूल्यांकन करते हैं | यहाँ तक कि उक्त हाँ और ना को लेकर (२४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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