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विचारों के बीज
__ अनेक प्राचीन ग्रन्थों में शरीर को क्षेत्र कहा है, परन्तु चिन्तन की धारा में यदि गहरे उतरें तो पता लगेगा कि वस्तुतः शरीर क्षेत्र नहीं, शरीर में छिपा हुआ मन ही क्षेत्र है । क्षेत्र का अर्थ खेत है, खेत में कुछ-न-कुछ बोया जाता है, जिसकी उपज पर बोनेवाले के भविष्य का अच्छा-बुरापन निर्भर है । शरीर में क्या बोया जाता है, और उसमें बोने के अनुरूप क्या उपज होती है ? कुछ भी तो नहीं होती । शरीर में से भोजन बोया जाता है, और उससे रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि और मल-मूत्र की ही उपज होती है, जिसका प्रस्तुत चिन्तन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है ।
आप देखते हैं, खेत में जैसा भी बीज बोया जाता है, तदनुरूप ही उसमें गेहूँ, चना, जौ आदि के पौधे लगते हैं और उन्हीं जैसा धान्य पैदा होता है। क्षेत्र की प्रकृति इसमें जरा भी भूल नहीं करती, ऐसा कभी नहीं होता कि बोया जाए गेहूँ और उसके बदले खेत में जौ या चना आदि की विपरीत फसल खड़ी हो जाए। यही स्थिति हमारे मन के खेत की है | हम इसमें जैसे विचारों एवं भावों के बीज बोएँगे, उसके अनुरूप ही तो हमारे भविष्य की परिणति होगी।
मन का क्षेत्र विशाल है | उसके सम्बन्ध में हमें निर्णय लेना है कि यहाँ कौन-सी फसल उगानी है । सुख की, शान्ति की उगानी है, या दु:ख की ? उत्थान की उगानी है, या पतन की । प्रगति की उगानी है, या अवगति की ? जो भी है, हमारे विचारों के बीजों पर निर्भर है, हिंसा, घृणा, वैर, लोभ-लालच, दुर्वासना आदि के बीज अशुभ हैं | यदि इन्हीं विचारों का बीजारोपण मनोभूमि में किया गया, तो अत्यन्त कांटों भरी दुःखों, पीड़ाओं की फसल पैदा होगी । और, यदि प्रेम, सद्भाव, सहयोग, उपकार एवं मैत्री आदि के शुभ बीज बोए गए, तो उससे सुखशान्ति और आनन्द-मंगल की वह उत्तम फसल पैदा होगी कि जन्म-जन्मान्तर के लिए अपार सुख-समृद्धि के अंबार लग जाएँगे । और यह
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