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देर स्वयं में एक अँधेर
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अनेक धर्माचार्य तथा समाज - नेता सत्य के निर्णय पर आकर भी उसको उद्घोषित एवं क्रियान्विक करने में हिचकते रहते हैं, अत: देर करते रहते हैं । क्या जल्दी है, करेंगे करेंगे, बस वात्याचक्र में उलझे रहते हैं । वे नहीं समझते कि देर करने के परिणाम प्राय: अच्छे नहीं होते । शुभ है, तो उसे शीघ्र होना ही चाहिए । 'शुभस्य शीघ्रम् ' कोई गलत नहीं कहा है । देर करते रहने से शुभ का रस समाप्त हो जाता है कालः पिबति तद्रसम् ।' लोग कहते हैं ' देर है, अंधेर नहीं । मैं कहता हूँ देर स्वयं में ही एक अंधेर है । जो भी करना है, समय पर कर लेना चाहिए। तारीखें डालते रहना, व्यर्थ ही केस को लंबा करते जाना, कोई अच्छी बात नहीं है । 'तुरत दान महाफल' का सिद्धान्त ही ठीक है । आज की अदालतें फैसला देने में देरी करने के कारण मजाक बन गई हैं । वर्षों के वर्ष हो गए, मुकदमों की लाखों फाईल या तो अंधेरे में दबी पड़ी हैं, या एक मेज से दूसरी मेज पर चक्कर काटती फिर रही हैं। एक बार कचहरी में प्रवेश कर जाइए, फिर प्रभु की अनन्त कृपा हो तो भले ही जल्दी वापस लौट आए, नहीं तो नहीं ही आएगी । पैसा खर्च होता रहता है, चारों तरफ से नोच-खसोट होती रहती है, वादी या प्रतिवादी घर से कचहरी और कचहरी से घर के चक्कर काटते काटते सही अर्थों में चकरघिन्नी हो जाते हैं । यहाँ तक कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह चक्र चलता रहता है, समाप्त ही होने को नहीं आता । यह देर अंधेर ही है, और क्या ? धर्म और समाज की अदालतों के भी गुरु और नेता न्यायाधीश हैं । उन्हें इस देर के अंधेर से बचना चाहिए । न हाँ और न ना, यह कैसा शासन करने का तरीका है ? लोक-निन्दा से डरे-डरे से रहते हैं । दुर्भाग्य से सही निर्णय दे ही नहीं पाते । देर होती रहती है, संगठन बिखरता जाता है । उचित समय पर उचित निर्णय के अभाव में यही तो होगा । शासक में दृढ इच्छा शक्ति का अप्रतिहत मनोबल होना चाहिए । ऐसे शासकों से ही लोक-मंगल हो सकता है । अन्यथा ...... । जो शून्य को तोड़ कर नवसृजन करता है, वही सृष्टिकर्ता ईश्वर है ।
अगस्त १९७६
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