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लोगों का काम है । कोई भी सभ्य ऐसी गंदी हरकत नहीं कर सकता । आवश्यक है, पहले गंदे हाथ धोए जाएँ, और फिर उनसे अपेक्षित पवित्र कर्म किए जाएँ ।
कर्म क्षेत्र में साधक जब संघर्षरत रहता है, तो उसका मन मस्तिष्क गंदा हो जाता है । काम, क्रोध, मद, लोभ आदि की किसी-न-किसी गंदगी से दूषित हो जाता है, अभद्र एवं गलत संस्कारों का कूड़ाकचरा मन में भर जाता है । अतः स्पष्ट है कि उक्त गंदगी से भरे मन-मस्तिष्क में अपने आराध्य प्रभु की भक्ति कैसे शुद्ध हो सकती है । अंट-संट संस्कारों एवं विचारों की बेमेल भीड़ में, बेसुरे कोलाहल में शान्त चित्त कैसे प्रभुस्मरण हो सकता है । ऐसा स्मरण केवल साम्प्रदायिक नियमों के पालन की एक बेगार काटना तो हो सकता है, मन के कण-कण को आनन्द की अमृतधारा से आप्लावित करने वाला पुण्य स्मरण नहीं ।
आप विशेष निमन्त्रण पर किसी प्रेमी मित्र या सम्बन्धी के घर मेहमान बनकर जा रहे हैं, तो ध्यान में रखिये, अपने घर की सुख सुविधाओं के गुद-गुदे संकल्पों को घर पर ही छोड़कर जाइए । उन्हें अपने मित्र या सम्बन्धी के घर पर भूलकर भी न ले जाइए । हो सकता है, जैसे सुख साधन आपको अपने घर पर प्राप्त हैं, वैसे वहाँ न प्राप्त हों । और यदि आप अपने प्राप्त सुख साधनों के विकल्पों का भार उठाए हुए ही वहाँ पहुँचे हैं, तो आप को वहाँ मधुर मिलन का कुछ भी आनन्द न आएगा । आप अन्दर ही अन्दर कुड़बुड़ाएँगे, बड़बड़ाएँगे और अपने स्नेही मित्र को गालियों से अलंकृत करेंगे । इतना ही नहीं, लौटने पर उसे यत्र-तत्र बदनाम भी करेंगे । मधुरता के लिए गए हैं, और ले आए हैं कटुता । ले ही नहीं, कटुता दे भी आए हैं । दिमाग को खाली न करने का यह कितना भीषण दुष्परिणाम होता है, कुछ आता है, आपकी समझ में ?
और हाँ, मित्र के यहाँ से वापस लौटते हुए भी अपने दिमाग को खाली करके लौटिए । यदि उचित सम्मान सत्कार न हुआ हो, भूल से या अन्य किसी तरह कुछ अपमान हुआ हो, मनोनुकूल सुखसाधन उपलब्ध न हुए हों, तो कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है प्रायः । पर, आप इस गंदगी को अपने दिमाग में न भरकर रखिए । क्योंकि कभी न कभी और कहीं न कहीं वह मुँह से बाहर आ ही जाती है और चिरागत स्नेह के मधुर वातावरण को विषाक्त बना देती है । इस तरह एक बार के टूटे हुए मन जीवन भर तो क्या, अनागत पीढ़ियों तक नहीं मिल पाते हैं।
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