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________________ का तेजस्वी रूप रूढियों के अंधकार में विलीन हो चुका था । 'वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् ' का ज्योति उद्घोष करनेवाला राष्ट्र उस समय स्वयं अंधकार में भटक रहा था; यज्ञयागादि के रूप में मूक-पशुओं का बलिदान देकर अपने लिए वह देवताओं की अनुकंपा प्राप्त करने की विडंबना अपना रहा था । धर्म के नाम पर यत्र-तत्र उत्पीडन-प्रधान क्रियाकांडों की जय-जयकार बुलाई जा रही थी। पंच पंचनखा भक्ष्याः' की ओट में अखाद्य वस्तु भी उसके लिए खाद्य वस्तु बन गई थी | मनुष्य एक प्रकार से मानवीवृत्ति से राक्षसीवृत्ति पर उतर आया था और वह भी दैवीवृत्ति की पवित्रता के नाम पर। करुणा और दया की ज्योति मनुष्य की आँखों से दूर हो चुकी थी। कहना तो यह चाहिए कि धर्म का कोई अंग ऐसा नहीं बच रहा था, जिसमें सत्पथ होने की क्षमता शेष रही हो । ऐसे तमसाच्छन्न समय में भगवान महावीर को हम सत्य-धर्म का ज्योतिर्मय निरूपण करते हुए देखकर निश्चय ही विस्मय-विभोर हो उठते हैं । अर्थहीन कर्मकांड के स्थान में अन्तरंग परमतत्त्व को जागृत करने वाले अध्यात्मभाव की नई दृष्टि प्रदान कर वे धर्म को अमंगल भूमि से मंगलभूमि में स्थापित कर देते हैं । शुभ और अशुभ की सत्यलक्षी यथार्थ व्याख्या करके वे मनुष्य मात्र की आँखे खोल देते हैं, इसमें तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं । अस्तु, सभी प्राणियों में परमात्म तत्त्व की भावना अपनाकर, जो भगवान महावीर के उपदेश का अमृत तत्त्व है, मनुष्य वास्तव में मनुष्य कहलाने का अधिकारी हो गया । मानवता की दिव्य प्रभा से मानव हृदय आलोकित हो उठा । सामाजिक क्षेत्र सामाजिक क्षेत्र में भगवान महावीर की जो देन है, वह तो सर्वथा क्रान्तिकारी देन कहीं जायेगी । समत्व की चर्चा मनुष्य समाज में प्रथम बर उनके द्वारा पुनर्जीवित हुई, व्यवहार में समता का जीवन मनुष्यों को प्रथम बार उनके द्वारा प्राप्त हुआ | शूद्र और नारी-समाज के लिए उन्होंने उत्थान का नार्ग प्रशस्त कर दिया । चिरपतितों और उपेक्षितों के जीवन में प्रथम बार जागृति आई । युगान्तर स्पष्ट दर्शित होने लगा | शूद्रों की छाया से अपवित्र होने की आशंका पवित्र विप्रों के लिए नहीं रह गई ।२ नारी को केवल भोग्य या दासी बनाकर नारकीय जीवन बिताने की आज्ञा देनेवालों को अपनी क्रूरता पर १ उत्तराध्ययन सूत्र २३ वा अध्ययन | २ उत्तराध्ययन सूत्र १२ वौं अध्ययन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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