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है। समत्व वहीं होता है, जहाँ आत्मा, मोह और क्षोभ से मुक्त होता है । उक्त मोह-क्षोभ से मुक्त स्वरूप समत्त्व के होने पर यदि कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति होती भी है तो वह सहज होती है, स्वभाव सिद्ध होती है, अत: उसमें विधिनिषेध का संकल्पजन्य आग्रह जैसा कुछ नहीं होता | वस्तुत: यही निर्मल, शुद्ध, आत्मस्वरूप वीतराग भाव निश्चय चारित्र है ।
चारित्रं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिदिट्ठो । मोह क्खोह विहिणो, परिणामो अप्पणो हु समो ।।
-प्रवचनसार, गाथा ७
उक्त विवेचन पर से स्पष्ट हो जाता है कि स्वरूपलीनता निश्चय है, और नियमलीनता व्यवहार है । स्वरूपलीनता इसीलिए देशकालादिजन्य परिवर्तन से परे है, चूँकि वह स्वरूप-लीनता है । स्वरूप में भला क्या परिवर्तन होगा, और वह क्यों होगा ? स्वरूप हमेशा क्या और क्यों के विकल्पों से परे होता है ।
परिवर्तन व्यवहार में होता है । क्योंकि व्यवहार हमेशा से ही देश, काल आदि से प्रभावित होता आया है । एक युग का व्यवहार दूसरे युग में अव्यवहार हो जाता है । एक देश की मान्यताएँ दूसरे देश में अमान्य हो जाती हैं । आज के युग में बहन-भाई का वैवाहिक सम्बन्ध जघन्य अपराध माना जाता है । किन्तु जैनपुराण तथा वैदिक पुराणों की अनुश्रुतियों के अनुसार यौगलिक भोगभूमि आदि के युग में ऐसा कुछ नहीं था | उस युग के लोकजीवन में यह एक सामान्य बात थी । इसका न्याय या अन्याय से कुछ सम्बन्ध नहीं था ।
जैन, बौद्ध और वैदिक पुराण कहते हैं कि स्वर्गलोक में स्त्रियाँ कामचारा हैं । एक देवी पहले एक देव की भोग्या होती है, वही बात में दूसरे देव की भोग्या भी हो जाती है । स्वर्ग में यह सब न्यायोचित है । कभी भारतभूमि पर भी यही स्थिति थी । महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि इसके साक्षी हैं | द्रौपदी के पाँच पति भी एक युग में विहित माने गए थे । द्रौपदी के समान कितनी ही अन्य नारियों का उल्लेख भी महाभारत में है। यह सब देश, काल का खेल है । इस खेल का प्रभाव पड़ता है समाज पर | और
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