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रहता है, उन्हीं पर चलने के मनसूबे बाँधता रहता है । परन्तु जो सपूत हैं, वे पुरानी लकीरों पर नहीं चलते । हर सपूत नई लकीरें बनाता है, नई लकीरों पर चलता है । सुना है कभी यह दोहा
लीक-लीक गाड़ी चले, लीक ही चले कपूत | ये तीनों लीकों ना चलें, शायर सिंह सपूत ।।
जो चलना जानता है, उसके लिए जहाँ ही कदम पडते हैं, पथ बन जाता है । भले आदमी, क्या पूछता फिरता है – कहाँ चलूँ, किधर चलूँ, कौनसा पथ सीधा है, साफ है । तेरे ये इधर उधर भटकते विकल्प ही तुझे चलने नहीं दे रहे हैं । एक दिन क्या, हजार दिन भी तू यही सोचता रहेगा, चलने नहीं पायेगा। संकल्प के रूप में बिखरे मन को एकत्र कर और चल पड़ । तू चला कि राह बनी । तेरा हर कदम राह का निर्माता है ।
देखते हो, पर्वत की वज्र चट्टानों की अवरोधक कठोर परतों को तोड़कर ऊपर आने वाला झरना क्या करता है ? उसके लिए किसी ने पहले से पथ बना रखा है क्या ? झरना इधर-उधर टकराता जाता है, अपना पथ स्वयं बनाता जाता है,उछलता-कूदता-मचलता बहता जाता है। बाधाएँ आती हैं, पथ अवरुद्ध हो जाता है । कुछ क्षण किसी अवरोध के कारण झरना रुक भी जाता है, किन्तु चन्द क्षणों में ही बाधाओं को वह टक्कर मारता है कि बाधाएँ चूर-चूर हो जाती हैं, और झरना उछल कर झट आगे बढ जाता है, हँसता ... गाता... शोर मचाता !
मानव ! तू कौन है ? झरना ही है तू भी तो ! पर्वत के झरने की तब भी शक्ति सीमित है | किन्तु तू तो अनन्त शक्ति का स्रोत है ! तू अनन्त, तेरी शक्ति अनन्त ! तू तो भुजाओं से सागर पार करने के लिए आया है । नौका की क्या प्रतीक्षा ? तेरी भुजा ही तेरी नौका है । तेरे जैसे हाथ और किसी के पास हैं ? नहीं हैं, नहीं हैं, देवताओं के पास भी नहीं हैं । देवता भी मनुष्य बनकर ही कुछ करना चाहते हैं ! बिना मनुष्य बने, उनका भी गुजारा नहीं है । श्रमण भगवान् महावीर इसीलिए. तुझे सम्बोधित करते रहे हैंदेवाणुप्पिय, अर्थात देवताओं के प्यारे | वैदिक ऋषि तुझे अमृतपुत्र कहते हैं ।
__ अपने को समझ, पहचान कि तू कौन है ?
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