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अर्जुन के मन में यह तूफान क्यों खड़ा हुआ, इस सम्बन्ध में खास कुछ कहा तो नहीं जा सकता । हाँ, अर्जुन स्वयं जो कहता है, वह विचारणीय है । वह युद्ध में अपने मरने की बात नहीं करता है | बार-बार स्वजनों के मरने की चर्चा करता है । 'स्वजनं हि कयं हत्वा, सुखिन: स्याम माधव ।' माधव, अपने परिवार के लोगों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? ' कुलक्षयंकृतं दोषं ।' यह कुलक्षय का पाप है । पापमेवाश्रयेदस्मान्, हत्वैतानाततायिनः ।' - इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा । ' अहो बत महत्पापं, कर्तुव्यवसिता वयम् ।' खेद है कि हम महान पाप करने को तैयार हुए हैं। इस प्रकार अर्जुन, स्वजनों की हत्या के पाप की चर्चा करता हुआ करुणा की बात करता है, साथ-साथ रोता भी जाता है-' तं तथा कृपयाऽऽविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।' और अन्त में श्रीकृष्ण को स्पष्ट कह देता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा- 'न योत्स्ये ।'
श्रीकृष्ण अर्जुन की इस स्थिति को करुणा नहीं, अज्ञान बताते हैं, और बड़े कठोर शब्दों में ' नपुंसकता' हिजड़ापन बताते हैं, 'कुतस्त्वा कश्मलमिदम्, क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यम् अनार्यजुष्टम्-क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ । ' और अर्जुन है कि भीख माँगकर गुजारा करने के लिए तैयार है, किन्तु स्वजनों की हत्या के खून से रंगे हुए वैभव को भोगने के लिए कथमपि तैयार नहीं है-' श्रेयो भोक्तुं भक्ष्यमपीह लोके । भुंजीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान् ।'
बड़ी विषम स्थिति है । अर्जुन स्वजनों के मोह में है और स्वजनों की हत्या से होने वाले पाप से भयभीत है । कुलक्षय के पाप से अनियतकाल तक नरक में सड़ते रहने से डरा हुआ है । नरकेऽनियतं वासो भवति । ' ऐसी स्थिति में कृष्ण करें तो क्या करें ? उन्होंने आत्मा के अविनाशी स्वरूप का सिद्धान्त उपस्थित कर अर्जुन को सम्बोधित किया, जैसा कि पहले उल्लेख कर आए हैं - कि “ आत्मा अजन्मा है, अजर है, अमर है, अविनाशी है ।" कौन कहता है- आत्मा मरता है, मारा जाता है | आत्मा को न कोई मार सकता है, न वह मर सकता है -' विनाशमव्ययस्याऽस्य, न कश्चित् कर्तुमर्हति' 'नाऽयं हन्ति न हन्यते । ' अत: अर्जुन, आततायियों के मारने में तुझे पाप नहीं है। अस्तु, निर्भय होकर युद्ध कर । ' तस्मात् युद्धस्व भारत ।' युद्ध करने में, हत्या होने में पाप नहीं है । पाप है, इस धर्मयुक्त युद्धके न करने में | 'धर्म्य संग्रामं न करिष्यति-पमवाप्स्यसि । ' गीता का यदि गहराई से चिन्तन करें तो
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