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________________ जीवा णो वड्ढति, णो हायंति, अवद्विया। - भगवती सूत्र २/८ जीव - आत्माएँ न बढ़ती हैं, न घटती हैं, किन्तु सदा अवस्थित ( हानिवृद्धि से रहित एक समान, एकरूप ) रहती हैं । अत्यत्तं अत्यत्ते परिणमइ, नत्थितं नत्यित्ते परिणमइ । अस्तित्व, अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है । अर्थात् सत् सदा सत् रहता है और असत् सदा असत् । ये कुछ नमूने हैं, जो महावीर के विचार सागर में से उदधृत किये हैं । इस प्रकार अविनाशी सिद्धान्त के सैकडों ही वचन हैं, जो आगम और आगमोत्तर साहित्य में यत्र-तत्र उपलब्ध हैं । भयमुक्ति का सन्देश दोनों ही महापुरुषों के ये आत्म-सम्बन्धी अविनाशी सन्देश भयमुक्ति के सन्देश हैं । संसार में मरण का भय सबसे बड़ा भीषण भय है । मरण-भय के क्षणों में व्यक्ति कुछ का कुछ कर बैठता है । कर्तव्य और अकर्तव्य का, धर्म और अधर्म का, पुण्य और पाप का, स्व और पर के हिताहित का, शुभाशुभ का, कुछ भी भान नहीं रहता है, मृत्यु के आतंकित प्रसंगों में । महावीर तो यहाँ तक कहते हैं कि भयभीत व्यक्ति को सत्य का साक्षात्कार नहीं हो सकता। कृष्ण भी दैवी सम्पत्ति के गुणों में सर्व प्रथम 'अभय' का निर्देश करते हैं । जो मनुष्य बात-बात पर भयाकुल हो जाता है, मृत्यु के संकल्पों में रहता है, हर क्षण डरता रहता है, वह देर सबेर विक्षिप्त की भूमिका में पहुँच जाता है । यह एक प्रकार का असाध्य या दुःसाध्य पागलपन है । इसीलिए महावीर का बोध है " आकस्मिक होने वाले उपद्रवों से, व्याधियों (मन्दघातक कुष्ठादि रोग) से, रोगों ( शीघ्र घातक विसूचिका - हैजा और हृदय रोग हार्टफैल आदि ) से, जरा-बुढ़ापे से, और तो क्या, मृत्यु से भी कभी डरना नहीं चाहिए " न भाइयव्वं भयस्स वा वाहियस्स वा, रोगस्स वा, जराए वा मच्चुस्स वा । प्रश्नव्याकरण २ / २ (१३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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