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________________ करते हैं, तो करोड़ों की, अरबों की । परिवार का एक सदस्य भी उनके कहने में नहीं है, पर स्वर्ग के देवों और इन्द्रों को किसी विशिष्ट मंत्र द्वारा वश में करने के इरादे रखते हैं । यह रूप है असंभव का । आकाश में उड़ने का स्वप्न तो मानव का पूरा हुआ है, पर पक्षियों की तरह पंख आने और उड़ने का स्वप्न अधूरा ही है, और वह अधूरा ही रहेगा । इसके पूर्ण होने में कोई लाभ भी तो नहीं है । आखिर आदमी पशु या पक्षी बनकर पाएगा भी क्या ? अब रहा प्रश्न संभव इच्छाओं का । संभव इच्छाओं का भी अपेक्षित एवं अनपेक्षित रूप में विभाग करना आवश्यक है । पानी पीने के लिए पात्र चाहिए, ठीक है, पर वह चाँदी या स्वर्ण का हो, यह अनपेक्षित है । वस्त्र पहनना है, ठीक है, पर वह रेशमी हो, टेरेलीन हो, या अन्य कोई विदेशी बहुमूल्य वस्त्र हो, यह गलत है । भूख है, भोजन चाहिए । वह शुद्ध, स्वच्छ एवं स्वास्थ्यकारी हो, अभक्ष्य न हो, अन्याय से प्राप्त न हो, यह सब ठीक है, आवश्यक है । पर वह उँचे मूल्य का मिष्टान्न हो, घृतआप्लावित ताजा माल हो । सीधा-सादा दाल-भात या रोटी आदि न हो, यह कैसा विचित्र विकल्प है ? अस्तु, संभव इच्छाएँ भी देश, काल, परिस्थिति आदि का यथोचित विश्लेषण माँगती हैं । सबके साथ घुलमिल कर आडम्बरहीन जीवन जीना ही मानवजीवन का आदर्श है । इसी में शान्ति है, अनाकुलता है । अपने को अलग से प्रदर्शित करने की वृत्ति छोडो । पोजीशन का चक्र बड़ा भयंकर है । पोजीशन का पागलपन जीवन को बर्बाद ही करता है, आबाद नहीं । इच्छा के मूल में अपेक्षित यथार्थ आवश्यकता होनी चाहिए, भोग विलास, आडंबर, अहंकार या पोजीशन आदि नहीं । अतः मन में किसी इच्छा के उत्पन्न होते ही सर्व प्रथम देखो, कि क्या वह ठीक है, क्या वह संभव है, क्या वह अपने और अपने पड़ोसी के लिए हितकर है, उसकी पूर्ति से तेरा अपना, पड़ोसी का, परिवार का या समाज का अहित तो नहीं है। बस, कम से कम इतनासा विश्लेषण करो, और दृढ़ता के साथ इच्छा पूर्ति के प्रयत्न में जुट जाओ । इस तरह तुम अशान्ति से मुक्त रहोगे, हर क्षण मोर्चे पर एक दिव्य शान्ति का आनन्द लोगे । मैं यह नहीं कहता, कि प्राप्त स्थिति में आवश्यक परिवर्तन न करो, हाथ पर हाथ धरे पौराणिक जड़ भरत की तरह निष्क्रिय पड़े रहो, अजगर वृत्ति का आदर्श अपनाओ । मेरा कहना केवल इतना ही है, कि विवेक के प्रकाश में जीवन का युद्ध लड़ो । असंभव एवं अनपेक्षित विकल्पों के अर्थहीन चक्र से बचो | जीवन धरती है, आकाश नहीं । (१०३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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