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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ
कपिल कोई निर्णय नहीं कर सका । दौड़ती इच्छा कोटि स्वर्ण मुद्राओं को भी लाँघ गई। जहाँ तक भी गया, अभावों की खाई आगे, और आगे अधिक चौड़ी होती गई । वह इसे पाट न सका । कहीं विराम ही नहीं मिला । इच्छाएँ मन के असीम आकाश में मुक्त विहंगों की तरह पर फैलाए उड़ने लगीं । तभी अचानक एक झटका लगा। भावधारा ने पलटा खाया । सोचने लगा - " अरे ! किधर बह गया ? दो मासा सोने के लिए आया था और अब तो कोटि कोटि स्वर्ण
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मुद्राओं से भी मन की तृप्ति नहीं हो रही है ? उड़ने को अनन्त गगन मिला, तो पक्षी उड़ता ही गया, कहीं रुका नहीं । इस उड़ान का कहीं किनारा भी है ?" उसका चिन्तन अन्तर्मुखी हो चला ।
"जहाँ लाभ होता है, वहाँ लोभ बढ़ता है । लोभ के तूफान में मैं भटक गया हूँ । आशा तृष्णा के उद्दाम प्रवाह में बह गया हूँ | जब तक इसका अन्त नहीं करूँगा, मन को शान्ति नहीं हो सकती। सोना और मणि मुक्ता आज तक किसी को शान्ति नहीं दे सके। इनका त्याग एवं सन्तोष ही तो शान्ति का साधन है । वही मेरे सुख का अक्षय कोष है । वह तो मेरे अन्दर है । उसे प्राप्त करना मेरा अपना अधिकार है । फिर राजा से मैं क्या माँगू ? वह धन दे सकता है, परन्तु शान्ति और सुख तो नहीं दे सकता ।"
" अरे तुम कैसे हो ? अभी तक कुछ नहीं सोच पाए ? जल्दी करो, जो माँगना है, माँग लो ! इतने क्या विचारों में
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