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शान्ति के मंगल-सूत्र
की मनोदशा पर मन उद्विग्न हो गया। बोला--"भगवन् ! अब फिर पान रखिए, मैं घी का दान करूं, ताकि पुनः स्वर्ग के आयुष्य का बन्ध हो जाए।"
मुनि सुदत्त ने मधुर स्मित के साथ कहा-“भद्र ! घी देने से कोई देव-आयुष्य का बन्ध नहीं करता । यह तो दाता की उच्च और विशुद्ध भावना पर ही निर्भर है । वस्तु मुख्य नहीं, भाव मुख्य है । और वह उच्च भाव, फल की आकांक्षा किए बिना निष्काम-भाव से दान करने पर ही आता है। स्वर्ग के लिए घी देना, तो सौदा है, दान-धर्म नहीं।" ___'यक्ष' श्रावक को अपने दुष्कृत पर बार बार पश्चात्ताप होने लगा । मुनि से अपने दुष्कृत - अपराध के लिए क्षमा माँगी। और कहा- "प्रभो ! मैं अपने मन को शान्त रख सकू, वह मार्ग बताएँ।"
__ मुनि तो क्षमा - शील थे ही । यक्ष को जीवन-मंत्र देते हुए बोले-"श्रावक । जीवन में किसी का दोष देखना नहीं चाहिए, यह पहली बात है। यदि प्रत्यक्ष में कभी किसी में कुछ दोष दिखाई पड़े भी, तो उस पर विद्वेष और रोष नहीं करना चाहिए, यह दूसरी बात है। मन की समता और
शान्ति के ये दो मंगल सूत्र हैं। जीवन-मंत्र बना कर चलो, .. तुम्हें शाश्वत शान्ति प्रप्त हो सकेगी !"
--कथा-कोष प्रकरण, (जिनेश्वर सूरि) कथा १९
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