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________________ ५२ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ "क्या मतलब माँ ? कहाँ चला गया ?” "बेटा, वह मर गया" - माँ ने एक लम्बा सांस छोड़ा ! "माँ ! क्या मैं भी ऐसे ही मर जाउँगा ?" "थूक बेटा, मुह से ! ऐसी बात नहीं किया करते । मरे तेरा दुश्मन ! मेरा लाडला क्यों मरे ?" "क्या मैं नहीं मरूंगा माँ ?" माँ दो क्षण मौन हो गई । पुत्र के सरल सुकुमार मुखड़े पर उभरती गूढ़ जिज्ञासा - रेखाओं को देखती ही रही ! पुत्र ने फिर मचल कर पूछा - " माँ ! सच सच बता, क्या मैं भी कभी मरूंगा ?" माँ की आँखें छलछला आईं - "हाँ बेटा, मरना तो सभी को पड़ता है, जो जन्मता है, वह एक दिन मरता भी है।" "माँ, क्या कोई ऐसा भी उपाय है, कि मैं मरू नहीं । "बेटा ! ऐसी बातें मत कर । मेरा कलेजा मुँह को आता है - तेरी ये अटपटी बातें सुनकर ।" - माँ ने उसको स्नेह ने थोड़ा-सा डाँट दिया । थावच्चा पुत्र माँ की डाँट से एक बार चुप तो हो गया । किन्तु उसके विचारों में एक अज्ञात कम्पन, एक गूढ़ प्रश्न सदा-सदा के लिए खड़ा हो गया । वह अकेले में बैठकर इसी विषय पर सोचता रहता-- “ मनुष्य मरता क्यों है ? क्या वह अमर नहीं रह सकता ? संसार में ऐसा कोई मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001291
Book TitleJain Itihas ki Prerak Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1987
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, N000, & N035
File Size4 MB
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