________________
क्षमा का आराधक निर्दोष भोजन प्राप्त हुआ, वह लेकर गुरु के पास लौटकर आया, तो शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार उपस्थित मुनिबरों के समक्ष भोजन - पात्र रखकर सादर निमंत्रित करने लगा"भन्ते ! आपको इसमें जो भी आवश्यकता हो, ग्रहण करके मुझे अनुगृहीत कीजिए- "साहू हुज्जामि तारिओ।"
कूरगडुक के सहज एवं सरल निवेदन पर एक तपस्वी मुनि को क्रोध चढ़ आया। उबल पड़ा- "धीठ कहीं का! आज पर्व दिन पर भी उपवास नहीं कर सका, और उलटा भोजन लाकर हमें दिखा रहा है । 'थू, थू' चला जा यहाँ से । पतित कहीं का.......?"
तपस्वी ने क्रोध व घृणावश ज्यों ही थू-थू किया कि वास्तव में ही उसके मुंह से थूक उछलकर कूरगडुक के भोजन-पात्र में जा गिरा। पर, कूरगडुक के चेहरे पर एक भी सलवट नहीं आई । अब भी वह पहली-सी अखण्ड शान्ति और सौम्यता थी उसके मुख - कमल पर । वह क्रुद्ध तपस्वी मुनि के चरणस्पर्श कर एकान्त में जाकर भोजन करने बैठा । भोजन करते-करते सोचने लगा-"वास्तव में ही मैं कितना पतित हूँ, धृष्ट हूँ ? इतनी लंबी जिन्दगी में एक भी उपवास नहीं कर सका । साधना - पथ पर आकर भी नित्य भोजन करता हूं। धिक्कार है मुझे ! उन तपस्वियों को धन्य है, जो दीर्घ तपस्याएँ करके आत्म-साधना में आगे बढ़ रहे हैं, जोवन संग्राम में वीर योद्धा की तरह जझ रहे हैं। मैं कायर हूँ, मुझ से तो कुछ भी नहीं हो रहा है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org