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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएं सदा लीन रहता हूँ। फिर मुझे इस विचार से क्या मतलब कि किसी का मुख कुण्डल सहित है, कि नहीं ?"
श्लोक सुनते ही राजा के मुंह से वाह-वाह निकल पड़ी। राजा ने सिंहासन से उठकर मुनि को नमस्कार किया और कहा--"महाराज ! मेरी घोषणा के अनुसार आप राजगुरु के सम्मान से विभूषित हो चुके हैं। आइए, पधारिए । सिंहासन पर बैठिए और उपदेश दीजिए।"
मुनि ने कहा- "राजन् ! साधु का सिंहासन तो उसका अपना मन ही है।" फिर क्षुल्लक मुनि ने मिट्टी के दो छोटे गोलेएक गीला और एक सूखा, जो कि उसके पात्र में ही रखे थे, लेकर सामने की दीवार पर फेंके और विना कुछ बोले ही चल दिए ?"
राजा ने कहा- “महाराज, धर्म का तत्त्व तो कुछ बतलाइए। ऐसे ही कैसे चल दिए ?"
"राजन् मैंने तो धर्म का सार बता दिया, तुम नहीं समझे ?" मुनि ने दीवार पर लगे दोनों गोलों की ओर संकेत किया।
"महाराज ! जरा स्पष्ट कीजिए ! हम समझे नहीं।" मुनि ने कहा
"उल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दोवि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोत्थ लग्गइ ॥ एवं लग्गंति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥"
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