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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ
धर्म-गुरु के मुख से श्रृङ्गार - रस का पद सुनकर कुछ रसिक वाह-वाह कर उठे, पर राजा गम्भीर हो गया। 'साधु होकर युवती का सुन्दर मुख देखते ही व्याकुल हो उठा । कैसी है इसकी साधुता ? साधु तो नारी - मात्र में निर्मल मातृत्व के दर्शन करता है, उसके रूप को नहीं, आत्मा को देखता है ! पर, यह तो उसकी रूप-ज्योति पर ही पतंगा बना हुआ लगता है। इस उक्ति में सच्ची साधुता की ध्वनि नहीं, अपितु किसी रसिक हृदय के भोग-विलास की धड़कन है।"
मंत्री ने दूसरे धर्म-गुरु की ओर संकेत किया। वे भी अपनी लम्बी यष्टि को संभाले सभामंच पर आए और उदात्त स्वर से श्लोक-पाठ शुरू किया
"फलोदयेणं मि गिहं पविट्ठो, __ तत्थासणत्था पमया मि दिट्ठा । विक्खित्तचित्तेण न सुटठु नायं,
सकु डलं वा वयणं न वेत्ति ।" "मैं प्रातःकाल फल एवं जल ग्रहण करने के लिए एक घर में गया, वहाँ आसन पर बैठी एक सुन्दर तरुणी को देखा, तो मेरी आँखें चुधिया गई । मैं यह निर्णय नहीं कर सका कि उसका मुख कुण्डल की आभा से युक्त है, कि नहीं?"
राजा ने देखा, यह भाषा भी किसी धर्म-गुरु की नहीं हो सकती, धर्म के परिवेश में किसी रसिक हृदय की भाषा है। सौन्दर्य • मुग्ध होने के कारण वह उसके कुण्डल से युक्त
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