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धर्म का सार
चम्पानगरी में सिंहसेन नामक एक महान् राजा था। उसके महामंत्री का नाम था रोहगुप्त। वह बड़ा ही चतुर, नीतिज्ञ और धर्म का जानकार था। कोई भी काम करता, उसमें राजा और प्रजा दोनों का हित समाया रहता । इसलिए राजा उसको जितना सम्मान देता था, जनता भी उसके प्रति उतना ही स्नेह और आदर का भाव रखती थी।
एक बार राज-सभा में धर्म-चर्चा छिड़ गई । भिन्न-भिन्न मत के मानने वाले अनुयायी अपने - अपने मत और पंथ की बड़ाई करने लगे । राजा ने इस वाद - विवाद पर प्रतिक्रिया जानने के लिए मंत्री की ओर देखा, मंत्री मौन था।
राजा ने कहा- "मंत्री, तुम भी इस 'वाद' में अपनी बात कहो न ? चुप क्यों हो?"
मंत्री ने नमस्कार की विनम्र मुद्रा में उत्तर दिया"महाराज ! यह कोई वाद है ? जहाँ पर धर्म और तत्त्व की जानकारी के छिए तटस्थ भाव से चर्चा की जाती है, वह 'वाद' तो श्रेष्ठ है। किन्तु जब जय - पराजय की भावना से पहलवानों की तरह दाव-पेंच खेलकर एक-दूसरे को पछाड़ने
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