________________
जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ
गाथा सुनते ही राजकुमार के मन की गाँठ खुल गई । सोचा--मुनि ने स्पष्ट बतला दिया है कि अणुल्लिका (राजकुमारी) अगड़ में पड़ी है । अवश्य ही किसी ने उसे भूमि-गृह में छिपा रखा है । राजकुमार का विचार घूम गया । इतने ज्ञानी होकर भी मुनि मेरा राज्य छीनने के लिए आए हैं ? बड़े ज्ञानी और प्रभावशाली हैं ये तो। वस्तुतः बहुत बड़ा खतरा है, जनता सब इन्हीं के पक्ष में हो जाएगी। और ये एक ही झटके में राज्य छीन लेंगे। इन्हें मारा भो कैसे जाए? ये मेरा विचार तो जान चुके हैं । तभी मुनि ने तीसरी गाथा दुहराई--
“सुकुमालग भद्दलया, रत्ति हिंडणसीलया।
मम पासाओ नत्थि ते भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं ॥"
-सुकुमार, मैं जनता हूँ-रात के अंधकार में घूमने की तेरी आदत है । तो घूम मजे से, डर क्यों रहा है ? मेरे से तुझे कोई भय नहीं है, भय है तो दीर्घपृष्ठ (मंत्री) से है।
तीसरी गाथा सुनते ही राजकुमार के सामने जैसे बिजली कौंध गई। सोचा- "मुनि ने मेरे सब विचार और प्रयत्न समझ लिए हैं । इसलिए साफ चेतावनी दे रहे हैं कि-मुझसे तुझे कोई भय नहीं है । पर, दीर्घ-पृष्ठ (मंत्री) से तुझे भय है ! मंत्री से क्या भय हो सकता है ? वह तो मेरे राज्य का संरक्षक है । नहीं, नहीं ! मुनि तो मनोज्ञानी हैं। जब ये कह रहे हैं, तो अवश्य ही दाल में कुछ काला है । चलू अभी मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा मांगू। इनका उद्देश्य तो पवित्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org