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तीन गाथाएँ
११
चूहे को यह भयाकुल स्थिति देखकर कुम्भकार का सरल मन गुदगुदा उठा । उसने चूहे को लक्ष्य करके गाथा कही
" सुकुमालग भद्दलया, रत्ति हिंडणसीलया । ___ मम पासाओ नत्थि ते भयं, दीहपिट्ठाओ ते भयं ॥"
"-हे सुकुमार भद्र मूषक ! मुझे मालूम है- रात के अंधेरे में इधर-उधर घूमते रहने का तेरा स्वभाव है तो भाई, आनन्द से घूमो-फिरो। मुझ से क्यों डर रहे हो ? तुम्हें मुझ से कोई भय नहीं, भय तो दीर्घ-पृष्ठ ( सांप ) से है।"
यव ऋषि ने कुम्भकार के मुंह से यह गाथा सुनी और याद कर ली । मुनि बैठे - बैठे मार्ग में सुनी हुई पहले की दोनों गाथाएँ और तीसरी यह-इस प्रकार तीनों गाथाएँ बार - बार दुहरा रहे थे।
राजकुमार गर्दभिल्ल बड़ा होने के बाद शासन-सूत्र स्वयं संभालने लग गया था। मंत्री दीर्घपृष्ठ स्वयं को राज्य का पितामह समझता था, अतः प्रत्येक राज - काज में हस्तक्षेप करता और राजाज्ञा से भी अधिक अपनी आज्ञा का गौरव रखना चाहता। गर्द भिल्ल को यह सह्य नहीं था। उसका युवा पौरुष मंत्री के हाथ की कठपुतली बनना कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था । युवक राजा और वृद्ध मन्त्री के बीच यह मानसिक द्वन्द्व बढ़ता चला गया। दीर्घपृष्ठ तो घाघ था, उसने इस संघर्ष के मूल राजा को ही समाप्त करके अपने पुत्र
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