________________
ब्रह्मचारी दम्पती
सहर्ष मस्तक पर चढ़ाया। और, जीवन-रथ अपनी सहजगति से आगे बढ़ता चला गया।
नई अंगड़ाई लेती हुई इठलाती जवानी, अनुकूल सुखसामग्री, तरुण-दम्पति, एक शय्या और अखण्ड - ब्रह्मचर्य ! कितना विरोधी और विचित्र संयोग ! मास-पर-मास और ऋतु-पर-ऋतु बीतती चली गई। वर्ष भी कई आए और चले गए । परन्तु विजय-विजया के अखण्ड - ब्रह्मचर्य की ज्योति घट के भीतर रखे हुए दीपक की तरह अखण्ड-भाव से सतत प्रज्वलित होती रही । क्या मजाल, इधर-उधर का कोई भी हवा का झोंका आए, और ज्योति बुझ जाए, या कंप - कंपा जाए !
एक बार चंपानगरी के श्रीमन्त सेठ जिनदास ने 'विमल' नाम के केवलज्ञानी मुनि से पूछा- "भगवन् ! मैंने एक संकल्प किया है कि चौरासी हजार मुनियों को एक साथ अपने हाथ से पारणा करवाऊँ। प्रभो ! मेरा यह संकल्प कैसे पूर्ण होगा ?कब पूर्ण होगा ?"
विमल केवली ने बताया-"देवानुप्रिय ! इतने मुनियों का एक साथ समागम बहुत ही कठिन है। असम्भव प्राय है। फिर इतना शुद्ध भोजन मिलना, तो और भी कठिन है।"
तो भन्ते ! मेरा संकल्प कैसे पूरा हो सकता है ?" सेठ ने पूछा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.